ओलम्पिक शुरू हुए लगभग 10 दिन हो चुके थे, अमेरिका सबसे ज्यादा मैडल ले जा चुका था। हम भारतीय एक पदक की आस में रात भर टेलीविजन के सामनें बैठे रहते, लेकिन पदक नही आता। कभी लगा कि आज भारतीय तीरंदाजी टीम एक पदक दिला देगी पर आखिरी वक्त में हार गई। 2008 ओलम्पिक के स्वर्ण पदक विजेता अभिनव बिंद्रा से भी उम्मीदें ख़त्म हो गई थी, ऐसे में भारत के छोटे से राज्य त्रिपुरा से आई २२ वर्ष की दीपा कर्मकार नें एक एतिहासिक ख्याति दर्ज की। वो अब 52 साल बाद ऐसी पहली भारतीय महिला बनी थी, जिन्होंने जिमनास्टिक के वाल्ट फाइनल में जगह बनाई थी। मानो सारी आशाएं फिर से जाग्रत हो गई, पूरे देश ने उन्हें सर-आँखों पर बिठाया और एक पदक की उम्मीद लेकर बैठ गए, लेकिन दीपा भी फाइनल में अच्छे प्रदर्शन करते हुए चौथे स्थान रहीं। मैडल से एक कदम दूर, थोड़ी निराशा हुई पर इन्होने करोड़ो भारतियों का दिल जीत लिया।
एक मौका और निकल चुका था और अब मुकाबला होना था 58 किलोग्राम वर्ग में महिला कुश्ती का, जिसमें भारत की तरफ से अगुवाई कर रहीं थी हरियाणा-रोहतक की साक्षी मालिक। यह रात वह रात थी जब भारत की झोली में मैडल आने वाले था, खैर जब सुबह हुई और न्यूज़ चैनल लगाया तो देखा एक मोटी-मोटी हैडलाइन सामने प्रदर्शित हो रही थी। लिखा था “साक्षी मालिक ने भारत को पहला कास्यं पदक दिलाया” मैंने तुरंत ट्विटर लॉग इन किया और ट्रेंड्स बटन को प्रेस किया, पहले ही नंबर पर #साक्षी मालिक ट्रेंड कर रहा था। ट्रेंड को ओपन किया तो देश के तमाम लोग साक्षी मालिक को बधाई दे रहे थे। मैंने भी एक ट्वीट में उनको बधाई दी और उनकी जीत पर ख़ुशी जताई।
ट्विटर पर कोई कह रहा था भारत का गर्व बेटी, बेटी-बचाओ, बेटी-पढ़ाओ, नारी शक्ति जिन्दाबाद इत्यादि!
अभी खुशी का सिलसिला जारी ही था कि हैदराबाद की पी.वी. सिन्धु ने ओलंपिक बैडमिंटन के फाइनल में जगह बना ली। इस जीत ने खुशी को दोगुना-चौगुना कर दिया था। अब देश के प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, फ़िल्मकार, साहित्यकार, खिलाडी, सामान्य जन सब अपनी खुशी जाहिर कर रहे थे और बधाई दे रहे थे। यह बधाई का डोज़ और बढ़ जाता, अगर सिन्धु गोल्ड मैडल जीत जाती, लेकिन उनके अथक प्रयासों के बाबजूद उन्हें फाइनल में हार का सामना करना पड़ा और सिल्वर मैडल से संतोष करना पड़ा। इस दौरान मैच के अंत तक पुरे देश में प्रार्थना, पूजा-पाठ और सिन्धु के लिए दुआएं होती रही, सोशल मिडिया पूरे दिन सिन्धु को ही ट्रेंड करता रहा।
आज तक जिस खेल की हमें ज्यादा जानकारी भी नही थी, उस खेल को लेकर हम इतने दीवाने हो गए। जिस देश में क्रिकेट को धर्म माना जाता हो उस देश में बैडमिंटन और कुश्ती का खुमार अद्भुत था। क्या हमारी राष्ट्रवाद की भावना आगे थी या महिलाओं को हर एक क्षेत्र में आगे बढ़ाने की भावना?
एक पल के लिए ऐसा लगा कि समाज और देश कितना बदल चुका है, लेकिन कुछ समय बाद याद आया कि देश की महिलाएं पहले भी पदक जीत चुकी हैं। पहले भी देश को गौरवान्वित कर चुकी हैं, तब तो समाज नही बदला बल्कि देश की महिलाओं की स्तिथि बद से बद्दतर होती चली गई। लेकिन देश के लोगों का देश की महिलाओं के प्रति सम्मान देखकर कुछ सवाल जहन में उठ रहे हैं-
क्या अब भ्रूण हत्या पूरी तरह से रुक जाएगी?
क्या अब महिलाओं पर अत्याचार थम जायेगा?
क्या अब असमानता ख़त्म हो जाएगी?
क्या अब महिलाओं को उनके सारे अधिकार मिल जायेंगे?
क्या महिलाएं अब मन-मुताबिक शादी करने में सक्षम होंगी?
क्या अब वह लोग जो इन महिला खिलाडियों के सम्मान में कसीदे गढ़ रहे हैं, वो जब अपने बच्चे के लिए बहु देखने जायेंगे तो दहेज़ की मांग को नही रखेंगे?
क्या जो युवा इन महिला खिलाडियों को बधाइयाँ दे रहे हैं, वो युवा अब किसी महिला को हीन भावना से नही देखेंगे?
क्या अब महिलाओं को उनकी उन्नति में, सामाजिक बाधाओं का सामना नही करना पड़ेगा?
महिलाएं बार-बार अपनी प्रतिभा का लोहा दुनियाभर में मनवाती रही हैं, पर हकीक़त यह है कि उनका सम्मान आज भी मैडल तक ही सीमित है। यदि महिलाएं मैडल जीत गयीं तो भारत की बेटी, महिलाशक्ति, देश का सम्मान और ना जाने क्या-क्या कहा जाता है। इसे लेकर चैनल अपनी टीआरपी बढ़ा लेते हैं और जो खिलाड़ी कठिन परिश्रम करने के बाद भी हार गई, उनकी कोई न्यूज़ नही बनती। ध्यान दें तो कुश्ती में कांस्य पदक दिलाने वाली साक्षी मालिक उसी राज्य हरियाणा से आती हैं, जहाँ बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ अभियान की शुरुवात हुई।
देश के लिए पहले भी साइना नेहवाल, कर्णम मल्लेश्वरी, एम.सी. मैरी कॉम जैसी महिला खिलाड़ी ओलंपिक में पदक जीत चुकी हैं, पर देश नहीं बदला। उस समय भी महिला खिलाडियों का ऐसा ही सम्मान हुआ था। महिलाओं के लिए सम्मान की यह भावना तब क्यों नही नज़र आती, जब किसी महिला के साथ बलात्कार होता है या उनके साथ हिंसा होती है, तब क्यूँ नही नज़र आती जब दहेज़ की मांग की जाती है, तब क्यूँ नही नज़र आती जब महिलाओं को हर कदम पर असमानता का सामना करना पड़ता है?
सही मायनों में महलाओं को उनके अधिकार तब तक नहीं मिल पाएंगे, जब तक उनके खिलाफ होने वाले अपराध नहीं रुकेंगे। महिलाओं की समानता को लेकर जद्दोजहद तब तक जारी रहेगी जब तक कि पित्रसत्ता के आधार पर बनी सोच नहीं बदलेगी।
The post क्यूँ बस प्रशंशा काफी नहीं है, महिलाओं के बराबरी के दर्जे को भी स्वीकार करना जरुरी है appeared first and originally on Youth Ki Awaaz, an award-winning online platform that serves as the hub of thoughtful opinions and reportage on the world's most pressing issues, as witnessed by the current generation. Follow us on Facebook and Twitter to find out more.