‘उम्मीद पर दुनिया कायम है’, हम अक्सर इस पंक्ति को सुनते रहते हैं। लेकिन जब हर रोज आपकी ‘उम्मीद’ टूटे, जब हर उम्मीद को हमेशा निराश कर दिए जाएँ तो ‘उम्मीद’ के सिद्धांत पर विश्लेषण ज़रूरी हो जाता है। इस पंक्ति के अस्तित्व और इसके पीछे छुपी ‘शासकीय राजनैतिक षडयंत्र’ को समझना आवश्यक हो जाता है। सवाल उठाने जरूरी हो जाते हैं। ऐसा प्रतीत होने लगता है कि शासक वर्ग ने ही इसे अपनी सहूलियत के लिये जन्म दिया और फिर अपने हिसाब से अपनी हर विफलता को छुपाने के लिए इसका इस्तेमाल भी किया। शासक वर्ग के द्वारा, हर तरह की उपेक्षा एवं शोषण के बाद भी सब कुछ अच्छा होने की ‘उम्मीद’ बची रह जाती है।
कितनी आसानी से गीता का उदहारण आधुनिक राज्य के शासक वर्ग दे दिया करते हैं। मतलब श्रमिक श्रम करें लेकिन मज़दूरी की अपेक्षा नहीं रखे, उसकी मज़दूरी भी शासक वर्ग की दया पर निर्भर करे। प्लेटो अपनी किताब ‘रिपब्लिक’ में कहते हैं कि अगर किसी ने काम किया है तो कर्मफल उसका अधिकार है। लेकिन यहाँ तो इस मज़दूर को अपने अधिकार मांगने की भी छूट नहीं हैं। आप हर पांच साल पर सरकार चुनें लेकिन उससे कोई भी उम्मीद नहीं रखें, उनसे कोई सवाल न पूछें, सब कुछ आप बस उनकी उदारता के ऊपर छोड़ दें। अगर वो उदार न हुए तो अगले उदार ह्रदय की खोज करें और फिर उनसे एक नई उम्मीद। ऐसा ही हम पिछले कई दशकों से कर रहें हैं। हमारी उम्मीदें बनती हैं और फिर टूटती हैं, बस पूरी कभी नहीं होती।
मसलन पटना से महज़ तीस किलोमीटर की दूरी पर बिहार का एक विधानसभा क्षेत्र है पर बीच में गंगा नदी होने के कारण यह मुख्य-धारा से सालों पीछे हो जाता है। इस विधान-सभा ने बिहार को दो मुख्यमंत्री एवं एक उप-मुख्यमंत्री दिया है, लेकिन तब भी मुख्यमंत्री नाव पर गंगा पार कर उस क्षेत्र में चुनाव प्रचार के लिए जाते थे और आज भी उप-मुख्यमंत्री नाव पर ही जाते हैं। यहाँ के लोगों की एक ही इच्छा है कि गंगा पर पुल बन जाये लेकिन पुल आज तक नहीं बना, अगर बनी तो बस उम्मीद। शासक वर्ग इतना बेशर्म हो चुका है की ये अगली बार भी नाव पर नदी पार कर वहाँ एक नई उम्मीद देने चला जायेगा। एक व्यक्ति इस उम्मीद में कि पुल बनेगा और उसकी उगाई हुई सब्जियां, उसके भैंसों के दूध इत्यादी पटना में अच्छी कीमतों पर बिकेंगे, सोचते-सोचते मर जाता है, लेकिन शासक वर्ग उनके बच्चों को फिर वही उम्मीद दे जाता है।
जब एक मज़दूर-किसान अपने बिखरे हुए सपने, टूटी हुई उम्मीदों और जर्जर ज़िंदगी के कारण को ढूंढ़ने की कोशिश करता है, इस पर सोचने लगता है, सवाल उठाने लगता है तो उसे शासक-वर्ग बरबस कहता है कि आप सोचते बहुत हैं, परिश्रम कीजिये, सोचने से काम नहीं चलता। आप ज़रा सोचिये की वह मजदूर या किसान परिश्रम ही तो कर रहा था, पर उसे मिला क्या? शायद सब कुछ अच्छा हो जाने की उम्मीद! कठिन परिश्रम के बावजूद वह किसान से मज़दूर बन गया। वह खुद शिक्षित था लेकिन उसके बच्चे अशिक्षित हो गए। वह शिक्षित था तो सोच भी रहा था, बच्चे शायद सोच भी न सके। प्रसिद्द दार्शनिक इमानुएल कान्त ने कहा की “डेयर टू थिंक” मतलब सोचने की हिम्मत करो, सोचने से ही तो ज्ञान प्राप्त होता है। लेकिन आधुनिक राज्य का शासक-वर्ग आपको सोचने की इजाज़त नहीं देता क्यूंकि उसे इस बात का डर है कि अगर शोषित वर्ग सोचने लगा या फिर अपने “फॉल्स-कोन्शिअसनेस” से बाहर आ गया, तो वह अभिजात्य वर्ग को उखाड़ फेकेंगा, उसके खिलाफ खड़ा हो जायेगा।
बाबा साहेब आंबेडकर ने संविधान बनाते वक्त इस बात की उम्मीद थी कि, कुछेक सालों में इस देश में संविधान का राज होगा, देश में हाशिये पर रह रहे लोगों को प्राथमिकता के तौर पर मुख्य-धारा में जोड़ा जायेगा। सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक प्रजातंत्र कायम हो जायेगा। परन्तु बाबा साहेब की उम्मीद भी तार-तार हो गयी, उनके उम्मीदों का पुल ध्वस्त हो गया। दलित-पिछड़े आज तक मुख्य-धारा से मीलों दूर हैं, दलितों का दमन आम सी बात हो गयी। दशकों गुज़र गए, एक व्यक्ति ने कितने संवैधानिक संशोधन देखे लेकिन उसके जीवन-स्तर में कोई संशोधन नहीं हुआ। आज भी शोषित समाज, संविधान के राज की उम्मीद लगाये बैठा है।
आज से चार दशक पहले इस देश में “गरीबी हटाओ” का ऐलान किया गया, टूटती उम्मीद फिर से स्फूर्त हो गयी थी। गरीबी बहुत तो नहीं हटी लेकिन इस दौरान गरीबी महज़ अब मानसिक स्थिति बनकर ज़रूर रह गयी है। यह मज़ाक बस शासक-वर्ग ही कर सकता है। गरीबी को कम दिखाने के लिए आँकड़े बदल दिए जाते हैं, मानक परिवर्तित हो जाता है और “हमारा देश आगे बढ़ रहा है” के नारे पाट दिए जाते हैं। प्रजातंत्र को, राजनीति के पिता कहे जाने वाले अरस्तु ने बेहतरीन शासन-तंत्र नहीं माना था। बहरहाल बुद्धिजीवी वर्ग ने “सच्चे प्रजातंत्र” को सुविधाजनक तंत्र माना है। लेकिन प्रजातंत्र तो शासक वर्गों के हाथ का खिलौना बन गया है। चुनावी राजनीति और सरकार बनाने के लिए ज़रूरी संख्या ने हम सबको महज़ “संख्या” में तब्दील कर दिया है। शासक वर्ग आगे बढ़ गए हैं और देश पीछे छूट गया है। व्यवस्था चरमरा रही है, विश्वास टूट रहा है, फिर भी उम्मीद बची है। आम जन पर अत्याचार हो रहा है, जनता ने कई जगह हथियार उठा लिया है, हर तरफ वैचारिक घमासान मचा है लेकिन अभी भी उम्मीद बची है।
अंततः सारे प्रपंचों की आधारशिला “उम्मीद” ही है। हमारी सरकारें उम्मीद बनाती रहती है, बांटती रहती है क्यूंकि उम्मीद नही रही तो इनकी दुनिया भी नही रहेगी। इस उम्मीद के भ्रम ने ही तो क्रांति के रास्ते बंद कर दिए हैं। अपने अधिकारों के लिए उठ खड़ा होना ही, इस उम्मीदों के भ्रमजाल से निकलना है। डॉ। लोहिया ने कहा था कि ज़िन्दा कौम पांच साल इंतज़ार नही करती। शोषण के खिलाफ संघर्ष करना ही तो बाबा साहब का सपना था। असल में ‘उम्मीद पर दुनिया नहीं कायम है’ बल्कि “उम्मीद के भ्रमजाल पर तो शासक वर्ग की दुनिया कायम है”।
The post जनतंत्र, संविधान और राजनीतिक आकांक्षाओं के बीच कहाँ खड़े हैं भारत के लोग appeared first and originally on Youth Ki Awaaz, an award-winning online platform that serves as the hub of thoughtful opinions and reportage on the world's most pressing issues, as witnessed by the current generation. Follow us on Facebook and Twitter to find out more.