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कौन है दलित, एक जाति विशेष या महज़ एक राजनीतिक पहचान?

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शाश्वत मिश्रा:

दलित शब्द का शाब्दिक अर्थ है – दलन किया हुआ। इसके तहत हर वो व्यक्ति आ जाता है जिसका शोषण – उत्पीड़न हुआ है, फिर चाहे वो किसी जाति का हो। हिंदी के साहित्यकार एवं कोशकार रहे आचार्य रामचंद्र वर्मा (1890-1969 ई.) ने अपने शब्दकोश मे दलित का अर्थ साफ लिखा है, मसला हुआ,मर्दित,दबाया,रौंदा या कुचला हुआ।

सालों पहले इस शब्द का प्रयोग उन तमाम जातियों के लिए सामूहिक रूप से किया जाने लगा जो हिन्दू समाज व्यवस्था मे सबसे निचले पायदान पर स्थित हजारों वर्षों से शोषण,बहिष्कार और दुर्व्यवहार का सामना कर रहे थे। जिसके मद्देनज़र सरकार द्वारा निचले तबके की जातियों के हित मे कई महत्वपूर्ण कदम उठाए गए थे। सालों से कराहती ज़िंदगी गुज़ार रहे उन तमाम जातियों के सम्मान और मौलिक अधिकार के संरक्षण के खातिर भारत के संविधान मे कई कानून और अधिकार लिखे गए।

परंतु आज सालों बीतने के बाद स्थिति बिल्कुल पहले जैसी नहीं है आज ना तो उस वक्त का निचला वर्ग पूर्ण रुप से दलित है ना ही उस वक्त का ऊपरी वर्ग पूर्ण रूप से समृद्धिवान है। आज अनुसूचित जाति का व्यक्ति भी समाज मे सम्मान की ज़िंदगी गुज़ार रहा है और ब्राम्हण जाति के व्यक्ति को भीआर्थिक शोषण का सामना करना पड़ रहा है। इसके बावजूद आज भी हमारे समाज मे कुछ लोग सिर्फ उन जातियों को ही दलित मानते है जिन्हें सालो पहले दलित होने का टैग मिल चुका है।

अब परिस्थितियां ज़रूर बदल चुकी है। मगर हमारी सोच अब भी पुराने मान्यताओं पर टिकी है। हर परिभाषा को नज़र अंदाज करके हमने मान ही लिया है कि दलित का मतलब सिर्फ अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति ही है।

हमारे देश मे जातिवाद की राजनीति का सिलसिला वर्षों पुराना है। ये सच किसी से छुपा नहीं है कि हमारी राजनीति जातियों को वोट बैंक समझती है। मै माफी चाहूंगा अपने कड़वे लहज़े के लिए पर सच यही है कि देश की कई बड़ी सियासी दुकाने जाति की गणित पर ही फलफूल रही है। सियासत मे जाति के आधार पर पार्टियों के अपने पारंपरिक वोटर होते है । चुनाव मे होने वाली पोलिंग भी जाति के आधार पर होती है। छुपा कुछ नहीं है, 2017 के विधान सभा चुनाव सर पर है और इसका असर सामने साफ दिख रहा है। क्या यह चलन संविधान के अनुच्छेद 14 और अनुच्छेद 15 का उल्लंघन नहीं है? बड़े दुख की बात है यहां हर कोई सब कुछ देख कर भी मौन है,बस बातें ही समानता की होती है।

आज राजनीति के गलियारे मे दलित शब्द की खिंचातानी ज़ोरों पर है। देखा जाए तो हमारी राजनीति ने दलित शब्द को गेंद बना दिया है। अब गेंद तो एक ही है पर इसके पीछे भागने वाले अनेक है। हर कोई चाहता है कि यह गेंद मेरे पाले मे आए। और यहीं वजह है कि चुनाव आते ही दलित शब्द का शोर अपने चरम पर होता है। फिर तो हर पार्टी को अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की चिंता सताने लगती है। और इन सब के बीच पिसते वो मासूम हैं जो दो वक्त की रोटी मे व्यस्त हैं । उन्हें तो पता भी नहीं होता कि उनके आड़ मे मलाई की दावत चल रही है।

मौके का फायदा उठाने मे मिडिया भी कहां पीछे रहने वाली है। यह भी रोज अच्छे से तेल मसाला लगा कर दलित शब्द को जम कर बेचती है।यह ही हमे बताती है कि कौन ऊंच जाति का है और कौन नीच जाति का। हर बार बारंबार खबर पर दलित का टैग चिपकाकर भारत मे मौजूद लगभग 16% पिछड़े वर्ग की जाति को हर रोज यह एहसास दिलाती है कि तुम लोग दलित थे, दलित हो। और फिर ये ही बड़े मासूमियत से वापस हम से ही सवाल करती है कि “आखिर कब तक हमारा समाज ऊंच -नीच जातियों मे विभाजित रहेगा?

इसमें कोई शक नहीं है कि तमाम पिछड़ी जातियों ने जो कष्ट और जो दलन झेला है उसके घाव गहरे होने के साथ पीड़ा देह भी है। परंतु अगर हर रोज उन घावों को कुरेदा जाएगा तो शायद वो कभी भी नहीं भर पाएगा। परिस्थितियां अभी एक दम नहीं बदली है मगर सुधार ज़रूर है। समाज मे एक बड़े बदलाव के लिए ज़रूरी है लोगो सकारात्मक सोच की। जरूरत है लोगो को जातिवाद के जंजाल से बाहर निकलने की। यह तभी मुमकिन है जब देश का माहौल बदलेगा। जब लोगों को जाति से हटकर कुछ सुनाया जाएगा। यह कोशिश अवश्य ही उन लाखों लोगों को सम्मान की ज़िंदगी दिलाने मे मदद करेगी जो सालों से दलन और शोषण का शिकार हो रहे हैं। ज़रा सोचिए आखिर कब तक पूरा देश उन्हें दलित ही कहता रहेगा? आखिर कब तक उनके इस पीड़ा की आड़ मे सियासी दुकाने चलती रहेंगी?

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