वर्ष 1969 में एक चर्चित हिंदी फिल्म आयी थी, जिसका नाम था ‘एक फूल दो माली’। इस फिल्म का एक गाना- भूखे, ग़रीब ये ही दुआ है…ओ दौलत वालो… काफी पॉपुलर हुआ। मैंने पहली बार इस गाने को अपने गांव से सटे बाजार जगदीशपुर में एक वृद्ध भिखारी को गाते सुना था। बाद में फिल्म भी देखी। आज इस गाने की चर्चा इसलिए कर रहा हूं, क्योंकि आज भी हमारे देश में भूखे और ग़रीब बस दुआ ही कर पाने के योग्य हैं। उनके हिस्से का सच आज भी ज्यों-का-त्यों है। हम भले ही अपने देश के अरबपतियों की सूची देख कर गौरव से भर जाते हैं। लेकिन, जब कोई वैश्विक रिपोर्ट यह बताती है कि कुपोषण से जूझ रहे दुनिया के 118 देशों में हमारे देश का स्थान 97वां है, तो हमारे तरक्की की सारी पोल खुल जाती है। कुछ लोग, तो फिर भी खुश होंगे कि हम पाकिस्तान से आगे हैं। उन्हें खुलेआम चुनौती तो दे ही सकते हैं कि भूख से लड़ कर दिखाओ, कुपोषण से लड़ कर दिखाओ, आदि-आदि।
दरअसल, पिछले 11 अक्तूबर को अंतर्राष्ट्रीय खाद्य नीति अनुसंधान संस्थान (IFPRI) द्वारा वैश्विक भुखमरी सूचकांक यानी ग्लोबल हंगर इंडेक्स-2016 की रिपोर्ट जारी की गयी। पिछले साल की तरह इस वर्ष भी रिपोर्ट को चार संकेतकों – अल्पपोषण यानी कुपोषण, लंबाई के अनुपात में कम वज़न, आयु के अनुपात में कम लंबाई तथा बाल मृत्युदर के आधार पर तैयार किया गया है। अच्छी बात यह है कि आंकड़ों के मुताबिक वैश्विक भुखमरी की स्थिति में साल-दर-साल सुधार तो हो रहा है, लेकिन भारत में इसकी स्थिति अभी भी गंभीर है।
इन आंकड़ों से हम सभी को चिंतित होने की ज़रूरत है, क्योंकि इन आंकड़ों में देश के बच्चे शामिल हैं। आप तो जानते हैं कि बच्चे हमारी देश के तकदीर हैं और अगर यही बच्चे कुपोषण की मार झेलते रहेंगे तो भविष्य का क्या होगा? कुपोषण एक अदृष्य आतंकवादी है। जो हमारे घर में, समाज में, मुहल्ले में ही रहता है। हम उसे देख कर भी अनदेखा कर देते हैं। इसका नतीजा हमारी प्रोडक्टिविटी यानी उत्पादन पर पड़ता है। चलिये आपको एक हालिया उदाहरण बताता हूं। हाल ही में गूगल साइंस फेयर 2016 के परिणाम आये। 13 से 18 वर्ष के लगभग दुनिया भर के बच्चे इसमें भाग लेते हैं। कमाल की बात है इसके 16 फाइनलिस्ट में 2 भारतीय बच्चे भी थे, लेकिन उससे भी ज़्यादा चौंकाने वाली बात ये है कि इनके अलावा पांच भारतीय मूल के बच्चे, जो अलग-अलग देशों में रह रहे हैं वो भी इसमें शामिल थे। अब सोचिए दुनिया के कोने-कोने में रहने वाले मुट्ठी भर भारतीय मूल के लोगों के बच्चों की प्रोडक्टिविटी और सवा सौ करोड़ भारतीयों के बच्चों की प्रोडक्टिविटी का अंतर क्या है?
दरअसल, अंतर बस पोषण और वातावरण का है। अब सवाल यह है कि हम जब पूरे मुल्क को खाद्य सुरक्षा देने में ही जूझ रहे हैं तो ऐसे रोज़ आ रही नयी-नयी चुनौतियों से निबटना क्या आसान काम होगा? नेपाल, बांग्लादेश, श्रीलंका जैसे देश हमारे देश की तरह विशाल नहीं हैं, उनकी इकोनॉमी भी हमारी जैसी नहीं है लेकिन उनके देश में भूखों और कुपोषितों का अनुपात हमारे देश के मुकाबले कम है। आखिर कोई तो तरीका होगा, जिसके ज़रिये हम कुपोषण को अपने देश से पूरी तरह खत्म कर सकेंगे।
ये आंकड़े, महज़ आंकड़ों तक सीमित नहीं हैं। इसके पीछे बड़ी कहानी छिपी हुई है। विकास की रफ्तार में तेज़ भागने की कोशिश में देश में अमीरी और ग़रीबी की खाई चौड़ी हुई है। इसके पीछे सरकारों की नीतियां और मंशा हमेशा कटघरे में नज़र आती है। यहां सरकार को अपनी प्राथमिकता तय करनी होगी कि उनके लिए पहली प्राथमिकता में पूंजीपति हैं या देश की ग़रीब जनता।
दरअसल, जब आप सरकारी नीतियों का पुनर्मूल्यांकन करेंगे तो पायेंगे कि वो देश की तरक्की के लिए अपने मजबूत घोड़ों(पूंजीपतियों) पर भरोसा करती है। जबकि देश के आम लोग या तो नौकरी के ज़रिये देश की तरक्की में भागीदारी दे पाते हैं या फिर स्वरोज़गार के ज़रिये। लेकिन यहां दिक्कत में वे फंस जाते हैं जो लंबे समय से ग़रीबी चक्र में फंसे हुए हैं। जिनके पास न तो रोटी है, न कपड़ा है और न ही मकान। जब वो दिन भर मज़दूरी करते हैं तब रात को उनके घरों का चूल्हा जलता है। वे कुछ-कुछ कर पैसे भी बचाते हैं लेकिन कोई इंसान बीमारी से बचा है भला। उनकी बचाई हुई पूंजी भी उसके भेंट चढ़ जाती है। यह परंपरा पीढ़ी-दर-पीढ़ी चली आ रही है। कुछ वहां से शिक्षा की वजह से निकल जाते हैं, तो उनके तरक्की की कहानियां भी हम सभी के बीच आती है।
मैं बस इतना ही कहना चाहता हूं कि सरकार अपनी प्राथमिकता में इन्हें शामिल करे, ताकि ये आंकड़े भारत जैसे गौरवशाली देश के लिए राष्ट्रीय शर्म का विषय न बन जाएं। साथ ही यहां एक समाजिक प्राणी के नाते भी हमारी ज़िम्मेदारी है कि हम भी अपने समाज में परस्पर सहयोग से कुपोषण के खिलाफ खड़े हों। आये दिन आप देखते हैं कि इस बात पर चर्चा होती है कि भक्ति और श्रद्धा के नाम पर हम कई टन दूध बहा देते हैं। यहां अपनी भावनाओं पर नियंत्रण रख कर वैज्ञानिक तरीके से सोचने की आवश्यकता है। वही दूध अगर भगवान की मूरत की जगह भूखे की पेट में पहुंच जाये, तो ईश्वर आपको ज़्यादा दुआ और आशीर्वाद देंगे। मैंने भी ऐसे बचपन को बहुत ही करीब से देखा है। सरकार के साथ-साथ हमारी, आपकी और हम सभी की यह ज़िम्मेदारी बनती है। हमें इससे भागना नहीं चाहिए। ऐसे रिपोर्टों के आने के दस दिन तक हम सक्रिय हो जाते हैं और फिर धीरे-धीरे अपनी दुनिया में मगन हो जाते हैं। हमें अपने स्मृति दोष में भी सुधार करने की आवश्यकता है, ताकि भूखे और ग़रीब दुआ देकर भीख न मांगना पड़े।
The post “बच्चों में कुपोषण और भुखमरी कहीं भारत का राष्ट्रीय शर्म ना बन जाए” appeared first and originally on Youth Ki Awaaz, an award-winning online platform that serves as the hub of thoughtful opinions and reportage on the world's most pressing issues, as witnessed by the current generation. Follow us on Facebook and Twitter to find out more.