कहते हैं कि जब एक कवि की कविता सत्ता का गुणगान करने लगती है तो कविता मर जाती है, जब एक लेखक की कलम सत्ता के प्रशंसा के कसीदे गढ़ने लगती है तो कलम की स्याही सूखने लगती है। ठीक वैसे ही जब एक पत्रकार सत्ता से सवाल पूछना बंद कर दे तो वो पत्रकार कम सत्ता का पीआर ज्यादा हो जाता है। जहां एक ओर सोशल मीडिया अभिव्यक्ति क स्वतंत्रता को एक आयाम दे रही है तो ठीक इसके विपरीत ख़बरों के ट्रोल का खेल ‘येलो जर्नलिज़्म’ के माथे पर सवार है।
सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार के NDTV इंडिया पर राष्ट्रहित में एक दिन के प्रतिबंध लगाने, NDTV का फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने और बैन पर फिलहाल सरकार द्वारा रोक लगाने की खबर के बाद सोशल मीडिया में दोनों पक्षों का दालान सज चुका है। दोनों तरफ से ट्रोल रूपी ब्रहमास्त्र लगातार छोड़े जा रहे हैं। जिसने कि कार्बन वाली हवा से भी ज़्यादा समाज को घिना दिया है। अब जब सभी एक दूसरे के माथा पर सवार हुए जा रहे हैं, फेसबुकिया मठाधीश आभासी दालान में खापनुमा फैसला सुना रहे हैं…इन सबके बीच इस दुनिया के सबसे बड़ी और तथाकथित सबसे मज़बूत लोकतंत्र के एक लोकतांत्रिक और देशभक्त मंत्री किरन रिजिजु का बयान अपने आप में बड़ा ही खतरनाक प्रतीत होता है। मंत्री साहेब ने कहा था कि हमें अथॉरिटी से सवाल नहीं करना चाहिए, जो फैक्ट है वो खुद पब्लिक हो जायेगा।
मतलब समझ में आया? या आने पर भी आँख मूँद लिए? आसान शब्दों में कुछ यूँ कि आप सरकार या सरकार के किसी भी तंत्र से उसके ज़िम्मेदारी को लेकर सवाल ना पूछें। अब सोचिए अगर यह हो जाये तो लोकतंत्र का बहुप्रचलित परिभाषा देने वाले अब्राहम लिंकन के आत्मा पर क्या गुज़रेगी? हमारा लोकतंत्र इस वक़्त अत्यंत ही नाज़ुक दौर से गुज़र रहा है। विगत 3-4 वर्षों में यह बैनासुर और तेज़ी से उभरा है। दिलीप सी मंडल जैसे पत्रकार का फेसबुक अकाउंट बंद करवा दिया जाता है, रविश कुमार जैसे एंकर को ज़मीन पर जाकर रिपोर्टिंग करने पर धमकाया जाता है, जेएनयू में वैचारिक लड़ाई को छीछालेदर मचा दिया जाता है। इन सभी प्रकरणों में ट्रोलबाज़ी के माध्यम से राजनीति भी शुरू हो जाती है। इस पैटर्न को और नज़दीक से देखा और समझा जाये तो स्पष्ट तौर पर पता लग जायेगा कि यह सब कैसे पूर्व नियोजित तरीके से किया और करवाया जाता रहता है। सवाल के बदले सवाल और आरोप के बदले में प्रत्यारोप रूपी अस्त्र हमेशा तैयार और सुसज्जित रहते हैं…और इन सबके बीच हम भूल जाते हैं कि ये सत्ता के हुक्मरान का यह बयान पूरे मुल्क़ के लिए है।
यह लोकतंत्र कोई निजी दुकान थोड़े है जो कि आप इसके स्वभाव और इसकी सवाल पूछने की सुंदरता के ख़ात्मा की सोचने की ज़ुर्रत भी करेंगे। आखिर एक आम आदमी अथॉरिटी से सवाल ना करे तो किससे करे? एक माँ, अपने लापता बेटे की तलाश छोड़ दे? इस मुल्क़ के 125 करोड़ लोग सत्ता के ठेकेदारों का नंगा नाच देखे? एक पत्रकार सवाल पूछना बंद कर बस सेल्फ़ी ट्वीट-रिट्वीट करे? सोचिए अगर ऐसा हुआ तो यह कितना भयावह होगा।
कुल मिलाकर फेसबुकिया दालान जरूर लगाये, ट्रोल का बाज़ार भी सजाएं, बहस भी जोरदार करें…लेकिन उचित मुद्दों पर। नहीं तो आपके वैचारिक खोखलोपन को आईना दिखाने के लिए एक प्राइम टाइम ही काफी है। यह समय लोकतंत्र को और मज़बूती प्रदान करने हेतु साथ खड़े होने का है। विचारधारा, पसंद नापसंद से ऊपर उठकर सवाल पूछने का है…क्योंकि सवाल पर सवाल है, बागों में बहार है।
The post नमस्कार मैं फेसबुक कुमार, ये है झगड़ों का प्राइम टाइम appeared first and originally on Youth Ki Awaaz, an award-winning online platform that serves as the hub of thoughtful opinions and reportage on the world's most pressing issues, as witnessed by the current generation. Follow us on Facebook and Twitter to find out more.