Quantcast
Channel: Society – Youth Ki Awaaz
Viewing all articles
Browse latest Browse all 12582

मैं कवि हूं, मैं कर्ता हूं, मैं ‘विद्रोही’हूं

$
0
0

जब बुद्धिजीवी होने का दंभ भरने वाले बड़े-बड़े साहित्यिक सूरमा सत्ता और पुरस्कारों की सीढ़ियां (जैसा कि रमाशंकर यादव ‘विद्रोही’ कहते थे कि हर जगह सीढ़ियां हैं, नोटों की सीढ़ियां हैं, गाड़ियों की सीढ़ियां हैं) चढ़ रहे थे, ऐसे दौर में विद्रोही ने सत्ता विरोध का एक मानक बनाया और सिर्फ बनाया ही नहीं उस मानक पर खरे भी उतरे।

यूं तो बहुत सारे लेखक, कवि/शायर सत्ता के खिलाफ कलम से मैदान में जमें हैं, लेकिन आंदोलन के मैदान से नौ दो ग्यारह ही रहते हैं या रहते भी हैं तो अपनी सहूलियत के हिसाब से। ये द्वन्द आपको विद्रोही के साथ नहीं दिखेगा। मसलन आप प्राइवेट प्रापर्टी के कांसेप्ट को ही ले लीजिए, तथाकथित मार्क्सवादी साहित्यकार प्राइवेट प्रापर्टी को रिजेक्ट करने की बात तो करते हैं पर व्यवहार में क्या वो ऐसा कर पाते हैं? जबकि विद्रोही ने प्राइवेट प्रापर्टी के सभी मानकों को रिजेक्ट कर दिया। विद्रोही के कथनी करनी में आपको अंतर नहीं दिखाई देगा।

कभी वामिक़ जौनपुरी साहब ने कहा था जो तुम्हारे बीच आया ही नहीं वो तुम्हारे गीत क्या गायेगा। जब बंगाल में अकाल पड़ा था तब वामिक़ साहब बंगाल गये और “भूखा है बंगाल” गीत लिखा था जो बाद में बहुत मशहूर हुआ। जनता का गीत जनता के बीच रहकर ही लिखा और गाया जाता है इसकी मिसाल हैं विद्रोही। विद्रोही की कविताएं मजलूमों की आवाज़ को कूवत देती हैं-

“मेरी पब्लिक ने मुझको हुक्म है दिया, कि चांद तारों को मैं नोंच कर फेंक दूं;
या कि जिनके घरों में अग्नि ही नहीं है, रोटियां उनकी सूरज पर मै सेंक दूं।
बात मेरी गर होती तो क्या बात थी, बात पब्लिक की है तो फिर मै क्या करूं;
मेरी हिम्मत नहीं है मेरे दोस्तों कि, अपनी पब्लिक का कोई हुक्म मेट दूं।”

आज विद्रोही को इस दुनिया से रूखसत हुए एक साल हो गया। नॅान नेट फेलोशिप के लिए आंदोलन चल रहा था, हम सब आंदोलन में दिल्ली में ही थे। विद्रोही भी उस दिन छात्रों के आंदोलन में ही थे। हमेशा सत्ता के दमनकारी, जनविरोधी नीतियों के खिलाफ हो रहे आंदोलनों में विद्रोही ने कविताएं पढ़ी इसलिए विद्रोही जनकवि हैं, क्योंकि जो कवि सत्ता विरोधी होता है वही जनकवि होता है। कविता की परिभाषा विद्रोही कुछ यूं देते हैं- कविता क्या है, खेती है, कवि के बेटा-बेटी है, बाप का सूद है मां की रोटी है( परिभाषा)”

विद्रोही के लिए कविता ही सब कुछ है पर कविता सिर्फ मनोरंजन नहीं है बल्कि एक सोच है, एक विचार है जो विद्रोही के कविताओं के फलसफे से स्पष्ट हो जाता है।

विद्रोही की कविताओं को तभी अच्छे से समझा जा सकता जब उसके फलसफे को समझा जाए और देखा जाए। कविताओं में विद्रोही की वैचारिक स्पष्टता और क्रांति के प्रति सचेतता और निश्चितता, कि क्रांति होनी ही है, विद्रोही की कविताओं के आधार मालूम पड़ते हैं। विद्रोही की कविताओं के फलसफे को देखने के लिए उन्हीं की कविताओं की बानगियों को लेते हैं।

“अब हम कहीं नहीं जायेंगे क्यूंकि, ठीक इसी तरह जब मैं कविता आपको सुना रहा हूं;
रात दिन अमरीकी मजदूर, महान साम्राज्य के लिए कब्र खोद रहा है;
और भारतीय मजदूर उसके पालतू चूहों के, बिलों में पानी भर रहा है;
एशिया से अफ्रीका तक जो घृणा की आग लगी है, वो बुझ नहीं सकती दोस्त;
क्योंकि वो आग औरत की जली हुई लाश की है, वो इंसान के बिखरी हुई हड्डियों की आग है।” (मुझे इस आग से बचाओ मेरे दोस्तों)

जब हम इस कविता को पढ़ते हैं तो सर्वहारा के नेता लेनिन की कृति “साम्राज्यवाद: पूंजीवाद की चरम अवस्था” याद आ जाती है, जिसमें लेनिन लिखते हैं कि साम्राज्यवाद सर्वहारा क्रांतियों की पूर्ववेला है, यह अपनी कब्र खुद ही खोद लेता है। यहां हम विद्रोही के वैचारिक स्पष्टता को बिल्कुल साफ-साफ देख सकते हैं।

नारी शोषण का इतिहास उतना ही पुराना है जितना कि मानव सभ्यता का इतिहास। नारी पर हो रहे शोषण का विद्रोही को बहुत दर्द है कि पहले सामंतवाद और अब पूंजीवादी समाज ने नारी का शोषण ही किया चाहे वो मोहनजोदड़ो हो या आधुनिक साम्राज्यवादी अमेरिका। हर जगह कवि को स्त्रियों और बच्चों की लाश दिख जाती है। चाहे पुलिस हो या न्यायालय हर जगह स्त्रियों को न्याय ना मिला है ना मिल रहा है, बल्कि शोषण के तरीके बदल गये हैं जैसे-जैसे पूंजी का चरित्र बदला है। यही कारण है कि विद्रोही, साईमन बनकर न्याय के कटघरे में दिखाई देते हैं तो कभी खुद जज बनकर फैसला सुनाते हैं तथा मनुष्य और प्रकृति को गवाही देने को कहते हैं और सारे रिकार्ड जो पुलिस और पुरोहितों द्वारा दर्ज किया गया है उसे दोबारा कलमबंद करने की बात करते हैं कि कहीं कुछ छूट तो नहीं गया।

“कुछ औरतों ने अपनी इच्छा से कूदकर जान दी थीं, ऐसा पुलिस के रिकार्ड में दर्ज है;
और कुछ औरतें अपनी इच्छा से चिता में जलकर मरी थीं, ऐसा धर्म की किताबों में लिखा हुआ है;
मै कवि हूं, कर्ता हूं, क्या जल्दी है;
मै एक दिन पुलिस और पुरोहित दोनों को एक साथ,औरतों की अदालत में तलब करूंगा;
और बीच की सारी अदालतों को मंसूख कर दूंगा” (औरतें, पृष्ठ 10)

विद्रोही की कविताओं की एक-एक पंक्ति में आपको इस पूंजीवादी समाज के आखिरी पायदान पर खड़ा व्यक्ति दिखाई देगा। कवि कल्पनालोक में बैठकर कविता नहीं लिखता बल्कि जो लिखता है सामने उसका मंजर है। कन्हई कहार, हलवाहा, नूर मियां जैसी कविताएं इसका प्रमाण हैं।

धर्म और अवतारवादी दर्शन की जितनी आलोचना विद्रोही ने अपनी कविताओं में प्रस्तुत की है, शायद ही किसी कवि ने की हो-
“धर्म आखिर धर्म होता है, जो सुअरों को भगवान बना देता है;
चढ़ा देता है नागों के फन पर, गायों  का थन;
धर्म की आज्ञा है कि लोग दबा रखे नाक, और महसूस करें कि भगवान गंदे में भी, गमकता है।”
विद्रोही की लड़ाई की लम्बी प्लॅानिंग थी “गुलामी के अंतिम हदों तक लड़ने” की।

काव्य में यही बात नागार्जुन के लिए कही जाती है कि अगर उस दौर के राजनीतिक हालात को जानना, समझना चाहते हैं तो नागार्जुन की कविताएं पढ़िए। और ऐसी कविताएं विद्रोही की हैं जिससे विद्रोही के इतिहासबोध का पता चलता है। मंटो अपने अफसानों के बारे में कहता था “अगर आप मेरे अफसानों को बर्दाश्त नहीं कर सकते तो समझिये जमाना ना काबिले बर्दाश्त है।” लेकिन बात है कि मंटो, समाज को अपने अफसानों के माध्यम से पाठकों के सामने रखता है और तमाम मसलों पर निर्णय अपने पाठकों पर छोड़ देता है। लेकिन विद्रोही उन मसलों की शिनाख्त कर उनसे लड़ने की बात करते हैं ताकि लोग कह सकें, सुन सकें, रह सकें, सह सकें। ( कविता संग्रह, नई खेती)

 

The post मैं कवि हूं, मैं कर्ता हूं, मैं ‘विद्रोही’ हूं appeared first and originally on Youth Ki Awaaz, an award-winning online platform that serves as the hub of thoughtful opinions and reportage on the world's most pressing issues, as witnessed by the current generation. Follow us on Facebook and Twitter to find out more.


Viewing all articles
Browse latest Browse all 12582

Trending Articles



<script src="https://jsc.adskeeper.com/r/s/rssing.com.1596347.js" async> </script>