5 नवम्बर को इलाहबाद हाईकोर्ट के तीन-तलाक़ पर सुनाये गये एक फ़ैसले से तीन तलाक़ का मुद्दा फिर से गर्मा गया है। विभिन्न मीडिया समूहों ने जहां एक ओर ये प्रकाशित करना शुरू कर दिया कि इलाहबाद उच्च न्यायालय ने तीन-तलाक़ को असंवैधानिक क़रार दे दिया है। और इस तरह इसको महिला अधिकारों के लिए लड़ रहे संगठनों के लिए एक जीत के तौर पर पेश किया गया। वहीं दूसरी ओर आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने भी ये ऐलान कर डाला कि वो इस फ़ैसले के विरोध में उच्चतम न्यायालय का दरवाज़ा खटखटायेंगे।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े संगठनों ने भी इस पर टिप्पणियां देना शुरू कर दी और कहना शुरू कर दिया कि मुस्लिम पर्सनल लॉ में फेरबदल की ज़रूरत है।
ये सारी रिपोर्टें पढ़ने के दौरान मैंने ये एक बात नोट की, कि कथित न्यायालय के निर्णय में क्या कहा गया है ये कोई बताने को तैयार नहीं है।
उच्च न्यायालय का ये आदेश 5 पन्नों में लिखा गया है। इसमें सबसे मज़ेदार बात ये है कि न्यायालय ने अपनी ओर से इस मामले पर कोई भी ‘निर्णय’ देने से ये कह कर मना कर दिया है कि ये मामला अभी उच्चतम न्यायालय के पास लंबित है और ऐसे में उच्च न्यायालय इस पर कोई फ़ैसला नहीं सुना सकता। तो सबसे पहले तो यह समझने की ज़रूरत है कि जो कुछ भी न्यायालय ने इस फ़ैसले में 5 नवम्बर को कहा वो केवल एक अवलोकन या ऑब्जरवेशन है न कि कोई फ़ैसला।
दूसरी ग़लतफहमी ये है कि कोर्ट ने तीन-तलाक़ को असंवैधानिक क़रार दे दिया है। जैसा कि पहले ही ज़िक्र किया जा चुका है, जब निर्णय ही नहीं दिया तो ‘क़रार’ देने का तो कोई सवाल ही नहीं बनता। आइये गौर करते हैं कि न्यायालय ने क्या कहा है। न्यायालय के अनुसार “किसी भी समुदाय के पर्सनल लॉ, संविधान में दिए गये व्यक्तिविशेष के अधिकारों से बढ़कर नहीं हो सकते।“
ये एक टिपण्णी हैं जहाँ कि न्यायालय ने केवल तीन-तलाक़ की बात नहीं की है बल्कि सभी पर्सनल लॉ जैसे हिन्दू मैरिज एक्ट, मुस्लिम पर्सनल लॉ आदि की भी बात की है। यहां ये गौर करने योग्य बात है कि न्यायालय ने कहीं भी ये भी नहीं कहा कि तीन-तलाक़ संविधान द्वारा दिए गये अधिकारों का उल्लंघन करते हैं या नहीं। हां न्यायालय ने ज़रूर स्पष्ट रूप से कहा कि “ये एक ग़लत धारणा है कि क़ुरान पुरुषों को औरतों के मुक़ाबले शादी तोड़ने के अनापेक्षित अधिकार देता है।” कोर्ट ने ये भी नोट किया कि “अधिकतर मुस्लिम सेक्ट्स तीन-तलाक़ को सही नहीं मानते। तब भी ये समझने की ज़रूरत है कि ये एक क्रूर प्रथा है और पित्रसत्तात्मक समाज की देन है।”
कोर्ट ने उच्चतम न्यायालय के ‘युसूफ रौठेर बनाम सोरम्मा और शमीम आरा’ केस का हवाला देते हुए ये भी कहा कि “क़ुरान के अनुसार तलाक़ की वजह होना ज़रूरी है और एक बार तलाक़ का हलफनामा दायर होने के बाद दोनों पक्ष, लड़का और लड़की के घरवालों को सुलह कराने का मौका दिया जाना चाहिए। यदि ये सुलह कामयाब न हो तभी तलाक़ दिया जा सकता है।”
ये काफ़ी दयनीय स्थिति है कि उच्च न्यायालय के एक फ़ैसले को अपने-अपने तरीक़े से पेश कर के सब राजनीतिक रोटियां सेंकने में लग गये हैं। फिर चाहे वो मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड हो या संघ से सम्बन्ध रकने वाले संगठन। मामला अभी उच्चतम न्यायालय के पास लंबित है और उम्मीद है कि वहां से जो भी फ़ैसला आएगा वो औरतों के हक़ में होगा परन्तु पहले-पहले ही राजनीती करना और उसको साम्प्रदायिक रंग देने कि कोशिश करना चिंता का विषय है।
The post इलाहबाद हाई कोर्ट के ट्रिपल-तलाक़ पर ऑब्जरवेशन को क्या आपने सही से समझा? appeared first and originally on Youth Ki Awaaz, an award-winning online platform that serves as the hub of thoughtful opinions and reportage on the world's most pressing issues, as witnessed by the current generation. Follow us on Facebook and Twitter to find out more.