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“आदिवासी होकर तू साइंस क्या पढ़ेगा।”

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एक मध्यम कद का नौजवान, उम्र यही कोई चौबीस साल, चकौर माथा, गोल चेहरा, गठीली देह, सांवला रंग। कैसला के राजेन्द्र में कुछ भी ऐसा ‘असमान्य’ नहीं था, लेकिन जब उसने अपनी आपबीती सुनाई तो उसका संघर्ष भीड़ से बिल्कुल अलग खड़ा था। उस किस्से को बताते हुए उसकी आँखों में आया गुस्सा, चमक, उम्मीद और खुशी सबकुछ असमान्य सा दिखने लगा था।

राजेन्द्र एक आदिवासी है। उसके गांव के लोग ज़्यादातर जंगल और ज़मीन से अपनी जीविका चलाते हैं। उससे हमारी मुलाकात बैतूल मध्यप्रदेश के एक गांव में हुयी। शाम का वक्त था, दिसंबर का अंतिम हफ्ता, बहती हुई ठंडी हवा ने हम सबको अलाव के पास खड़ा कर दिया था। वो कैसला, मध्यप्रदेश का रहने वाला है। बेहतरीन बाँसूरी बजाता है और चित्रकारी करना भी उसे पसंद है।

राजेन्द्र ने बारहवीं तक की पढ़ाई की है- साइंस स्ट्रीम से। लेकिन राजेन्द्र के लिये बारहवीं में साइंस लेना उतना आसान नहीं था, जितना देश के अन्य हिस्सों में हुआ करता है। उसने बताया कि उसके गांव में कम ही बच्चे हैं जो प्राइमरी के बाद पढ़ाई आगे जारी रख पाते हैं। एक वक्त के बाद पेट भरने का सवाल पढ़ाई पर भारी पड़ जाता है।” राजेन्द्र ने दसवीं पास करने के बाद साइंस सब्जेक्ट पढ़ने को चुना और यहीं से उसकी मुश्किलें शुरू हुई। स्कूल में साइंस पढ़ाने वाले शिक्षक उसे ताना देने लगे, आदिवासी होकर तू साइंस क्या पढ़ेगा। वो बताते हैं कि शिक्षक दूसरी जाति के छात्रों को पढ़ाते थे लेकिन हमें कोसते रहते थे कि, “तू तो साइंस में फेल होगा ही, उपर से मेरा रिकॉर्ड खराब करेगा सो अलग।”

इन तानों को सुनते-सुनते राजेन्द्र थकने लगा था, उसका बाल-मन स्कूल जाने से घबराता। हालांकि कई टीचर ऐसे थे जिनकी क्लास उसे अच्छी लगती थी, तो वो उन टीचरों के क्लास अटेंड करता और जो टीचर ताना मारते थे, उनकी क्लास के वक्त बाहर निकल जाता। वो टीचर से बचने की भरसक कोशिश करने लगा। क्लास की जगह स्कूल के आंगन में बरगद पेड़ के पास जाकर बैठा रहता और खुद से ही अपने दोस्तों से नोट्स लेकर पढ़ाई किया करता।

बात यहीं नहीं रुकी। जब बारहवीं एग्जाम के लिये स्कूल में एडमिट कार्ड बांटा जा रहा था तो राजेन्द्र को एडमिट कार्ड देने से मना कर दिया गया। राजेन्द्र बताते हैं, “वे लोग मुझे एडमिट कार्ड नहीं दे रहे थे। उन्हें लग रहा था कि ये लड़का तो पास ही नहीं करेगा। मुझसे कई बार पूछा गया ‘एग्जाम में पास हो जाओगे न?’ मेरे बार-बार दुहराने के बाद ही मुझे एडमिट कार्ड मिल सका। वहीं दूसरी तरफ दूसरी जाति के लड़कों से इस तरह का कोई सवाल नहीं पूछा गया’।”

राजेन्द्र बताते हैं कि “जब रिजल्ट आया तो मैं बारहवीं पास हो गया था, वो भी साइंस सब्जेक्ट में, जबकि उस टीचर के बहुत सारे स्टूडेंट एग्जाम में असफल रहे थे।” अपने रिजल्ट को बताते हुए राजेन्द्र की आँखें भी हँस रही होती हैं। मुझे एकलव्य का किस्सा याद आता है, मुझे रोहित वेमुला का संघर्ष याद आता है, वर्तमान समय में यूनिवर्सिटी, कॉलेज, स्कूल में बैठे द्रोणाचार्यों पर गुस्सा आता है, आज भी उस प्राचीन कथा-किस्सों से निकल कर द्रोणाचार्यों  ने हमारी आधुनिक यूनिवर्सिटियों पर कब्ज़ा जमा रखा है, वे हजारों बहुजनों को एकलव्य बनने पर मजबूर कर रहे हैं। देशभर में सिर्फ एक यूनिवर्सिटी में दलित कुलपति है, ओबसी-आदिवासी-दलित शिक्षकों की संख्या न के बराबर है। जब मैं दिल्ली में बैठकर राजेन्द्र की कहानी लिख रहा हूं, उसी वक्त देश के कथित प्रगतिशील यूनिवर्सिटी जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में 12 छात्रों को निष्कासित कर दिया गया है, ये सभी बहुजन हैं, दलित-आदिवासी-ओबीसी तबके से आते हैं। फिलहाल ये छात्र लड़ रहे हैं। द्रोणाचार्यों के खिलाफ राजेन्द्र को जीत मिली थी, इन छात्रों को भी मिलेगी- क्योंकि भले इतिहास द्रोणाचार्यों की बर्बरता से अटी पड़ी है, लेकिन भविष्य इन एकलव्यों का है, इनके संघर्षों का है।

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