किसी भी स्थान या संस्कृति विशेष के लोगों द्वारा किया जाने वाला कोई आयोजन, खेल, भाषा, भोजन सामग्री का पैटर्न, त्यौहार इत्यादि, उस संस्कृति विशेष में कई सालों से अपने आप ही समाहित हो गया होता है। समय के साथ-साथ इसके स्वरुप में परिवर्तन भी होता रहता है। निश्चित ही इन सभी विशेषताओ के प्रति उन लोगों का लगाव अत्यधिक होता है जो उस संस्कृति का हिस्सा होते हैं।
लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि इन परम्पराओं का पालन किसी भी तरह के मॉरल स्क्रूटनी से बाहर होगा या परे होगा। मनुष्य के आचरण का नैतिक मूल्यांकन केवल उसके द्वारा, अन्य मनुष्य के साथ किये गये व्यवहारों के सन्दर्भ में ही नही किया जाना चाहिए। गैर मनुष्यों जैसे पशु-पक्षी आदि इकाइयों के प्रति किये गये व्यवहारों का भी नैतिक मूल्यांकन किया जाना चाहिए। चाहे उसका जस्टिफ़िकेशन जो भी हो।
हज़ार सालों की परंपरा का हो या किसी पशु के नेटिव ब्रीड को बचाने का तर्क हो।”मनुष्यों को अपने आनंद के लिए पशुओं के साथ किसी भी सीमा तक अत्याचार करना चाहिए क्योंकि सर्वाधिक महवपूर्ण कुछ है तो मनुष्य का सुख है।” यह तर्क हमें उस स्तर तक भी ले जाता है कि यदि मनुष्यों का सुख ही किसी भी आचरण का नैतिक प्रतिमान है तो उसे पाने के लिए सिर्फ पशु ही क्यों मनुष्यों पर भी किसी भी सीमा तक अत्याचार किया जाना चाहिए। इसे भी परम्परा या आइडेंटिटी के नाम पर जस्टिफाई किया जाना चाहिए।
अगर आप इसे नैतिक रूप से अनुचित मानकर किसी न्यायालय की शरण में जाते हैं तो उसी तरह न्यायालय ‘जीवन जीने के अधिकार’ का विस्तार ‘गैर मनुष्यों’ तक करता है और उनके इस अधिकार की रक्षा के लिए निर्णय देता है। अन्यथा किसी एक हिरन को मार देने के जुर्म में किसी पर इतने साल तक मुकदमा चलाने का कोई मतलब नहीं था। कोई भी परम्परा, संस्कार या संस्कृति सतत रूप से मॉरल स्क्रूटनी के अंतर्गत होना चाहिए। सती प्रथा भी कभी भारत के कल्चरल प्रैक्टिस का हिस्सा था। लेकिन इसकी वजह से यह किसी तरह के नैतिक मुल्यांकन से बच नही पाया।
यह सत्य है कि मनुष्य अपने जीवन के दौरान अलग-अलग तरीकों से पशुओं का प्रयोग करता है ,भोजन के लिए वस्त्र के लिए ,मनोरंजन के लिए, जीविका के लिए इत्यादी। अलग-अलग संस्कृतियों में इस सन्दर्भ में अलग अलग पैटर्न पाया जाता है। अतः पशुओं के अधिकारों का निर्धारण बिलकुल संस्कृति निरपेक्ष होकर नहीं किया जा सकता।पशुओं के अधिकार की बातें हमेशा उस संस्कृति के सापेक्ष ही की जानी चाहिए जहाँ की बात हो रही है क्योंकि यह उस संस्कृति विशेष के लोगो के जीवन निर्वाह का प्रश्न होता है।
लेकिन जीवन निर्वाह की सीमा को पार करके किसी अन्य ऐसी जरूरत के लिए ऐसे प्रैक्टिसेज़ किये जा रहे हैं जिसके बिना भी रहा जा सकता है। जिस खेल में पशुओं को भयानक कष्ट होता है तो इसे सिर्फ स्पीसिज्म, ह्यूमन शाविनिज्म, या कल्चर सेंट्रीक व्यवहार कह सकते हैं जो की नैतिक दृष्टि से अनुचित है। किसी स्थापित परम्परा के सन्दर्भ में, जिसमे किसी मनुष्य या पशु पर गैर जरूरी अत्याचार किया जाता है तो उसे लेकर समाज में एक स्वस्थ और संवेदनशील बहस का आरम्भ होना चाहिए।
जनतांत्रिक बहस ही किसी व्यवस्था में स्वस्थ परिवर्तन ला सकते हैं न कि कोई उन्माद से भरी हुई भीड़। जल्लीकट्टू या ऐसे ही अन्य प्रैक्टिसेज ऐसे बर्बर खेलों की याद दिलाते हैं जिसमे दो मनुष्यों के बीच फाइट होती थी और वो तब तक होती थी जब तक उनमे से एक मारा न जाए। कई हॉलीवुड की फिल्मों में इस तरह के दृश्य देखे हैं जिसमे जनता सबसे ज्यादा आनंद तब उठाती थी जब उनमे से एक की मौत बहुत ही ब्रुटल तरीके से होती थी।हमारी संवेदनशीलता केवल हमी पर समाप्त नहीं हो सकती क्योंकि प्रकृति में सिर्फ मनुष्य ही एक मात्र स्टेक होल्डर नहीं है।
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