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नाम-लोकपाल, रंग-पता नहीं, रूप-पता नहीं, मिलने पर सूचित करें

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जी, यहाँ कोई ‘लोकपाल’ नाम का है क्या? बहुत थक गया था मैं, पसीने छूट गए थे मेरे। हर जगह खोजा उसे पर किसी को उसका पता नहीं था। जो भी हो एक बात थी, सभी को याद था कि कोई ‘लोकपाल’ था। अजीब बात थी कि किसी ने उसे खोजने का प्रयास नहीं किया। मैं अंतत: उसके पुराने पते पर गया, पर वहां बच्चे खेल रहे थे, मैदान खाली था। उस रामलीला मैदान से जय प्रकाश नारायण की हुंकार और अपने ‘लोकपाल’ जी की मुझे ख़ुशबू आ रही थी।

ख़याली पुलाव पकाने की आदत नहीं मुझे, पर हालातों से मजबूर होकर मुझे यह सोचने पर विवश होना पड़ा कि ‘काश लोकपाल होता’। 2011 में इंडिया अगेंस्ट करप्शन के आंदोलन का हिस्सा हुए बिना मुझे आहत होता है कि हमारे देश में लोकपाल नहीं है। शायद हमारे देश से वो संवेदना ग़ायब हो रही है। पिछले 5 सालों से चले आ रहे सभी मुख्य मुद्दे दरकिनार कर दिए गए हैं और ‘मेरा देश बदल रहा है, आगे बढ़ रहा है’ बजने लगा है। जी देश तो आगे बढ़ ही रहा है। सोमवार से शनिवार, जनवरी से दिसम्बर और धीरे-धीरे 2019 भी आ जाएगा।

सहारा बिरला डायरी का तो राहुल गांधी और केजरीवाल के साथ साथ न्यायपालिका ने भी मज़ाक़ उड़ा दिया। एक पूर्व मुख्यमंत्री ने आत्महत्या की और किसी को कुछ फ़र्क़ नहीं पड़ा। फर्क़ भी कैसे पड़ेगा किसी को पता ही नहीं चलने दिया गया। ‘सैंडविच’ जैसे बात को दबा कर खा लिया गया। कुछ न्यूज़ पोर्टल ने इसे सार्वजनिक किया, पर बड़े TV चैनलों ने उसे दिखाने की हिम्मत नहीं की। कालिखो पुल ने एक काम अच्छा किया ‘मेरे विचार’ नाम से सुसाईड नोट छोड़ गए। यही उम्मीद लगा कर कि कोई जांच करेगा। जनता उनकी जान का महत्व समझेगी और सरकार पर दवाब बना कर बढ़ाएगी। उन्हें क्या पता था की लोकपाल अब गुमनाम हो गया है। ‘मेरे विचार’ में उन्होंने शुद्ध हिंदी में साफ़ साफ़ नाम लेकर जज और नेताओं के खिलाफ गंभीर आरोप लगाए।

पर इतना से क्या होता है, सहारा बिरला डायरी में तो सारे सबूत थे पर जांच नहीं हुई। ऐसे कैसे न्यायपालिका पर जनता भरोसा करेगी। मुझे तो पुल के ‘मेरे विचार’ और ‘सहारा-बिरला’ डायरी में साफ़ संबंध दिखाई दे रहा है। शायद प्रधानमंत्री ने पुल से डायरी को लेके जजों को बचाया और जजों ने सहारा बिरला डायरी से प्रधानमंत्री और अन्य नेताओं को बचाया। देश की तो डील कर दी इन्होंने और इस सौदे से जनतंत्र पर भारी प्रहार हुआ है।

अभी तक तो देश और मीडिया को चुनाव और सब कुछ भूलकर इस आत्महत्या पर बात करनी चाहिए थी, इसके पीछे के रहस्य का पता लगाना चाहिए था। जनता को पुल के दर्द को समझ कर सड़क पर उतर जाना चाहिए था। यह ख़तरे की घंटी से कम नहीं है जब प्रतिनिधिगण और न्यायपालिका के लोग लोकतंत्र को ख़त्म करने के फ़िराक़ में हैं। यह पुल की आत्महत्या नहीं लोकतंत्र की हत्या है।

मुझे यह सब लोकपाल जी को याद करने के लिए मजबूर कर देता है। अगर लोकपाल होता तो सबकी जाँच होती, सबकी पोल खुल जाती, सही और ग़लत में फ़र्क़ दिख जाता। अभी तो सब भ्रष्टाचार के खिलाफ योद्धा बने हुए हैं। मज़बूत लोकपाल होता तो सब दूध का दूध और पानी का पानी हो जाता। इसलिए सोचता हूं ‘काश लोकपाल होता’, आप भी सोचिए।

फोटो आभार: फेसबुक  

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