मैं सोचता हूँ कि पिछले कई बरसों से हमने मोहब्बत करनी छोड़ी हुई है और शायद इसका कोई हिसाब नहीं। सोसाइटी तो ख़ैर मोहब्बत को एक ग़ैर ज़रूरी चीज़ समझती ही है, लेकिन हम देखते हैं कि हमारी नई कहानियां, ड्रामे, फिल्में सब की जेबें मोहब्बत के सिक्कों से ख़ाली हैं। हम तो इस मोहब्बत को भी इतना ग़ुस्से और ग़म से भरा हुआ दिखाना चाहते हैं, जिसमें ख़ुद मोहब्बत के लिए कोई जगह नहीं रह जाती। आम तौर पर हमारी कहानियों का हीरो एक ऐसा शख़्स होता है जो मोहब्बत में सबसे बग़ावत कर के एक लम्बी लड़ाई छेड़ देता है। यानी मानिये न मानिये, हम कहीं न कहीं एक ऐसी दुनिया की तरफ़ चल पड़े हैं जहाँ मोहब्बत का मतलब भी लड़ने-झगड़ने के सिवा कुछ नहीं रह गया है।
हमारी सियासत तो वैसे भी हमें दिन-रात ये याद दिलाती रहती है कि हमें किस चीज़ से कितनी मोहब्बत करनी चाहिए और उसके लिए कैसी भी क़ुर्बानी देने के लिए तैयार रहना चाहिए। हम मारो-मारो की तकरार करने वाले एक हुजूम में बदल गए हैं। एक ऐसा हुजूम जहां हर आदमी आंखों में क्रोध और घृणा लिए सियाह पत्थरों को हाथों में उठाए एक दूसरे की तरफ़ इस उम्मीद से देख रहा है कि पहला पत्थर मारने की हिम्मत कौन करता है? उसके बाद हम सब हमले के लिए तैयार हैं। ऐसे बहुत से पत्थर भी हैं जो नज़र नहीं आते, बहुत से तीर हैं जो दिखाई नहीं देते, मगर उनसे हम दूसरों की निजी ज़िन्दगियों या मोहब्बत की उन छोटी-छोटी उम्मीदों पर वार करते रहते हैं जहां से ज़रा सा भी प्रेम का सोता फूटता हुआ दिखाई दे जाए।
आप अलग-अलग धर्म के लोगों में मोहब्बत नहीं होने देना चाहते, अलग-अलग जातियों में मोहब्बत नहीं होने देना चाहते, अलग-अलग ज़बानों के बोलने वालों में और अलग अलग मुल्कों में रहने वालों में भी मोहब्बत नहीं होने देना चाहते। कहीं भी हमारी चील सी नज़रें बस ये देखना चाहती हैं कि ऐसा कोई शख़्स नज़र आ जाए जिसने मोहब्बत करने की जुर्रत की हो। उसके बाद हम पंचायतें बिठाएंगे, उनके ख़िलाफ़ फ़तवे जारी करेंगे, उन्हें ग़द्दार कहेंगे जो इस जुर्म को करने की भूल कर बैठे हैं, जिसे पुरानी और बहुत पुरानी कहानियां प्रेम या इश्क़ के नाम से जानती हैं।
अट्ठारवीं सदी में दिल्ली के एक शायर मीर तक़ी मीर ने कहा था, “दिल की तह की कही नहीं जाती, नाज़ुक है इसरार बहुत, अक्षर तो हैं इश्क़ के दो ही लेकिन है बिस्तार बहुत”
ग़ौर कीजिये तो इश्क़ न कर पाने की और इस इसरार या भेद को न पा सकने की हमारी क्षमता ने ही हमसे सब कुछ छीन लिया है। हम बच्चों को इतिहास में भी सिर्फ़ बड़ी जंगें दिखाते हैं। कुरुक्षेत्र से लेकर पानीपत की जंग तक, प्लासी से लेकर कारगिल तक अब हमारे पास सिर्फ़ जंगें ही जंगें रह गई हैं और शायद हमारे क्या, पूरी दुनिया का यही हाल है। बहुत से मुल्कों ने इन्हीं जंगों की दास्तानें पढ़ कर nuclear हथियार तैयार कर लिए, उन्हें लगा कि उनकी सरहदें महफ़ूज़ हो गई हैं। मगर जंगों का इतिहास पढ़ कर पनपने वाली नस्लों में इन हथियारों से एक अलग क़िस्म का जंगी जूनून पनपने लगा है। वो आदमी भी जिसको अपने दुश्मन कहे जाने वाले मुल्क के किसी आदमी से मिलने, उसे देखने, उससे बात करने का इत्तिफ़ाक़ भी नहीं हुआ है, आज चाहता है कि पल भर में इन हथियारों को इस्तेमाल कर के दुश्मन को ‘करारा जवाब’ दिया जाए और सब कुछ मटियायामेट कर दिया जाए।
इसमें कोई शक नहीं है कि जंगों के इतिहास को पढ़ते-पढ़ते, जंगों की दुनिया और जंगों के लालच में जीते हुए हम अब हर चीज़ और हर बात को शक की निगाह से देखने लगे हैं। वो आदमी जो दोस्ती की बात करे, गुनहगार है, ग़द्दार है। तो फिर सोचिये ऐसे में इश्क़ करने की किसी को कैसे इजाज़त मिल सकती है, इश्क़ से ख़ाली इस दुनिया में हम एक अजीब फ़्रस्ट्रेशन का शिकार हो गए हैं, हम अपने आस-पास किसी को भी प्यार करते हुए नहीं देख सकते।
इसलिए हमने इश्क़ के बजाए, जो कि हमारी धरती की सबसे पुरानी रिवायत है, छोटे-छोटे और निहायत छिछोरे ताल्लुक़ात बना कर ख़ुद को ख़ुश रखना सीख लिया है। हम दूसरों की तरफ़ तो क्या अब ख़ुद की तरफ़ भी निगाह उठा कर नहीं देखना चाहते और ये सोचे बग़ैर कि हम क्या ख़त्म करना चाहते हैं या क्या बचाना चाहते हैं, अपने आप को ‘होने’ के आनंद से भी महरूम करते जा रहे हैं। हमने चीज़ों को, लोगों को गहराई के साथ और संजीदगी के साथ पसंद करना छोड़ दिया है और सीखा है तो बस उक्ताना।
मेट्रो में, सड़कों पर, गलियों में, गांव में या शहर में, घर में या बाहर कहीं भी हम ये इजाज़त देना ही नहीं चाहते के दो लोग पूरी आज़ादी के साथ एक दुसरे के होंठों को चूम सकें। एक दुसरे की आंखों में आंखें डाले, बदन से बदन मिलाये अपने इश्क़ और ताल्लुक़ की ख़ुशी का भरपूर इज़हार कर सकें। लेकिन झगड़ा करते हुए दो लोग हमारी तवज्जोह का मरकज़ बन जाते हैं, हम चाहते हैं कि ये झगड़ा चलता रहे, कहीं झगड़ा होते-होते रह जाए तो हम निराश हो जाते हैं। लेकिन अगर हम एक इश्क़ का इज़हार करने वाले जोड़े को लब चूमने से रोक दें तो इसे अपनी बड़ी कामयाबी समझते हैं।
हम शायद अब कभी न समझ सकें कि इश्क़ में इज़हार की ये आज़ादी हमें कृष्ण की धरती ने दी थी, जो हमसे औरंग़ज़ेबों और अंग्रेज़ों ने छीन ली है। हमारे स्कूल बच्चों को इश्क़ और ज़िन्दगी का सुनहरा चैप्टर पढ़ाना ही नहीं चाहते, बस गर्व करना सिखाते हैं, उन बातों पर जिनमें हमारा कोई रोल ही नहीं है। न्यूज़ चैनल ये बता-बता कर हमारे पिचकते हुए सीनों में हवाएं भरते हैं कि भारत सरकार किस किस प्रकार के जंगी और लड़ाका प्लेन ख़रीद रही है।
ये कहानियां यक़ीनन इश्क़ की उन बोसीदा और फटी-पुरानी दास्तानों से ज़्यादा हिट साबित हो रही हैं जिनमें रंग, नस्ल, धरती, ज़ात देखे बग़ैर बस इश्क़ किया जाता था। इश्क़ जो ज़िन्दगी बदलना जानता था, जो दूसरों की बात सुनने, उनके दुःख दर्द को समझने के लायक़ बनाता था, जो दुश्मन और दुश्मनों की धरती पर आबाद लोगों में थोड़ा बहुत अंतर करना सिखाता था। इश्क़ जो बात करने के हुनर को जानता था। लेकिन अब ऐसा इश्क़ हमारे बस की बात नहीं, वो बीते हुए युगों का क़िस्सा है। अब हम सिर्फ़ लड़ना जानते हैं और लड़ना चाहते हैं।
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