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सामाजिक व्यवस्था का सबसे प्राचीन रूप है ग्रामसभा

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भारत में पिछले 70 वर्षों से जिस लोकतंत्र का अनुसरण किया जा रहा है उसे प्रतिनिधि लोकतंत्र (Representative democracy) कहते हैं। इसमे देश की जनता अपने लिए प्रतिनिधि चुनती है जो किसी जिले या संसदीय क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते हैं। जनता द्वारा प्रतिनिधि (Representative) चुनने के कई मुद्दे हो सकते है, जिसका निर्णय जनता खुद करती है।

भारत के सबसे बड़े लोकतंत्र में जन-प्रतिनिधि को चुनने के आदर्श यानि कि आचार-संहिता, चुनाव आयोग ने बनाए हैं ताकि जनता को एक योग्य प्रतिनिधि मिलें। ऐसे प्रतिनिधि जो जनता के हक़ और अधिकार की बात सरकार से कर सकें।

भारत में लोकतंत्र कोई नई व्यवस्था नहीं है, वरन हज़ारों सालों से इस देश के छोटे-बड़े समुदायों में प्रत्यक्ष लोकतंत्र (Direct Democracy) की झलक दिख जाएगी। भारत के जनजातीय क्षेत्रों में इस प्रकार की प्रशासनिक व्यवस्था का अस्तित्व सालों से रहा है। इस प्रकार की पारंपरिक शासकीय व्यवस्था को ग्रामसभा कहा जाता है, जिसमें न्यायव्यवस्था से लेकर ग्राम विकास तक के मुद्दों को शांतिपूर्ण ढंग से लोकसहमति द्वारा सुलझाया जाता है। देसी परम्परागत शासन व्यस्वस्था ही  ग्रामसभा की रीढ़ है। झारखण्ड राज्य के मुंडा समुदाय में मानकी मुंडा, उरांव समुदाय में पड़हा व्यवस्था और संताल समुदाय में मांझी परगनैत आदि प्राचीन प्रत्यक्ष लोकतंत्र (Direct Democracy) के सबसे बेहतरीन उदाहरणों में से हैं।

प्रत्यक्ष लोकतंत्र यानी ग्रामसभा व्यवस्था को लोकतंत्र का पितामह भी कहा जा सकता है, क्यूंकि मानव सामाजिक व्यवस्था का सबसे प्राचीनतम रूप है प्रत्यक्ष लोकतंत्र। जनता अपने ही संवैधानिक अधिकार से अनभिज्ञ होती है, इसलिए अब देश के प्रत्येक नागरिक को किसी राजनीतिक दल के लुभावने वादों पर अपना मतदान नहीं देना चाहिए बल्कि देश के संविधान और जनता की निष्ठा के आधार पर अपना प्रतिनिधि चुनना चाहिए।

एक नेता सत्ता में आने से पहले अपने दोनों हाथों को जोड़ कर वोट देने की अपील करता है बिल्कुल शक्तिहीन अवस्था में (चुनाव से पूर्व)। लेकिन जनता के पूर्ण बहुमत के बाद कोई नेता या पार्टी सत्ता में आती है तो जनता से किये गए वादों की बात को नजरअंदाज़ कर दिया जाता है। यहां तक कि सत्तारूढ़ नेता जनता से रूबरू भी होना नहीं चाहते, जनता के मुद्दों की बात तो छोड़ ही दीजिये। यह सिलसिला 70 सालों से इस देश में ऐसे ही चला आ रहा है।

देश में मुद्दे कई हैं- गरीबी,अशिक्षा, शुद्ध पेयजल की समस्या, कुपोषण, बेरोज़गारी लेकिन कोई भी राजनीतिक पार्टी इन मुद्दों को सरकार के सामने नहीं उठाती। बल्कि ऐसे प्रतिनिधि सरकार में शामिल होकर अनावश्यक गतिविधियों में शामिल हो जाते हैं। धार्मिक मुद्दों को हवा दी जाती है। जातिवाद और क्षेत्रवाद की बात होती है। जनता की भावनाओं से खिलवाड़ किया जाता है और अलग-अलग खेमा बनाकर जनता को टुकड़ों में बांट दिया जाता है। जनप्रतिनिधि या राष्ट्रीय दल देश के नागरिकों के अंदर भारतीयता की भावना को जागृत नहीं करते बल्कि उन्हें जाति, धर्म और भाषाओं में बांटकर लोकतंत्र की मर्यादा को शर्मसार करते हैं। धर्म और जातिवाद की राजनीति अब इस देश में जनता की संख्या पर निर्भर करती है वो चाहे विकास की कसौटी पर खरा उतरे या नहीं।

आज देश में धार्मिक भाषण और प्रवचन तो खूब सुनना पसंद किया जाता है, लेकिन इस देश के संविधान और नागरिकों के कानूनी अधिकार की बात अगर कोई करना भी चाहे तो कोई सुनता पसंद नहीं करता। कुछ लोग कानून की जानकारी रखने के बाद भी चुप रहते हैं और कुछ संविधान के नीचे अपनी कलुषित योजनाओं को पूरा करने का प्रयास करते हैं।

फोटो आभार: flickr  

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