अदनान मिर्ज़ा:
सामने सड़क से आते एक ट्रक ने माहौल में बदलाव ला दिया। अपनी तेज़ गड़गड़ाहट की आवाज़ से उसने सबका ध्यान अपनी ओर खींचा। जैसे-जैसे ट्रक नज़दीक आ रहा था वैसे-वैसे माहौल में आवाज़ और गर्माहट बढ़ती जा रही थी। ट्रक एक ख़ाली जगह पर आकर रूक गया। आफिस से सड़क तक खड़े लोगों की लाइन सीधी हो गई। चौड़ी सड़क पर दो सिलेंडर के गोदाम हैं जो काफ़ी पुराने हैं और सालों से उसी जगह पर है। सभी सिलेंडर वाले क़तार में खड़े अपने नंबर का इंतज़ार कर रहे थे।
इन्हीं में से एक शख्स ऐसा भी था जो पुराने गाने गाकर माहौल को खुशनुमा बनाए हुए था, जैसे कि उसे जल्दी न हो। वो क़तार में सबसे पीछे खड़ा था। एक के बाद एक क़तार में खड़े लोग पीछे मुड़कर उसे देखते और मुस्कुरा देते। उसकी उम्र चालीस-पैंतालीस को छू रही थी। सिर के काले-सफ़ेद बाल और नाक के पास एक मोटा मस्सा चेहरे का मिज़ाज बयां कर रहा था। रंग सांवला, बड़ी-बड़ी आंखें और लंबा मुंह जैसे किसी जवान पहलवान की याद दिला रहा हो। बदन पर गहरे हरे रंग की वर्दी ताने और पैरों में काले रंग के घिसे जूते पहने बार-बार एक कोने में चबाते पान की पिचकारी थूकता और अपनी जन्मभूमि की बोली से सुरों को जारी रखे हुए था। तभी आगे क़तार में खड़े एक शख़्स ने पीछे मुड़कर कहा राकेश जी! पर वो अपने गाने की धुन में मस्त था।
कुछ देर बाद उसी शख़्स ने ज़ोर से आवाज़ देते हुए कहा कि अरे राकेश जी, सारे गाने आज ही गाओगे क्या! राकेश चौंकता हुआ बोला कहो शर्मा जी क्या हो गया! क्यों परेशान हो रहे हो? शर्मा जी बोले कि आप हमें सिर्फ़ समय बता दीजिए कि कितने बज रहे हैं? राकेश ने अपने दाहिने हाथ की कलाई पर बंधी घड़ी पर नज़र डालते हुए कहा कि बारह बज गए हैं और बताइए आपकी क्या सेवा करें!
आपका बहुत-बहुत धन्यवाद कहकर शर्मा जी ने अपना चेहरा आगे कर लिया। राकेश की गुनगुनाहट फिर शुरू हो गई। समय बीत रहा था। धीरे-धीरे क़तार कम हो रही थी। गोदाम की चहल-पहल में भी गिरावट आ रही थी। राकेश के होंठों पर पान की लाली अब भी बरकरार थी। आख़िर राकेश का नंबर भी आ गया। उसने आफिस में बैठे शख़्स को अपना नाम बताते हुए चार-पांच पर्चियां दिखाई और चार-पांच सिलेंडर को अपनी साइकिल पर टांगकर साइकिल पर बैठकर पैडलों पर ज़ोर से पांव मारता हुआ उसी गुनगुनाते अंदाज़ में गोदाम से बाहर निकलकर सड़क की तरफ़ चल दिया।
सड़क का रास्ता तय करते हुए वो एक कॉलोनी की गली में चल दिए। सिलेंडरों से लदी भारी भरकम साइकिल को उसने एक दुमंजिला मकान के आगे रोका और सिलेंडर के सहारे साइकिल को खड़ा कर दिया। मकान के दरवाज़े पर दस्तक दी। थोड़ी देर तक कोई बाहर नहीं आया तब राकेश ने भारी आवाज़ में कहा कि सिलेंडर ले लो और फिर दरवाज़े पर दस्तक दी। दूसरी मंजिल के छज्जे से एक महिला ने बाहर झांका और अपने हाथों के इशारे से उसे नीचे रूकने को कहा। जब तक महिला नीचे आती तब तक राकेश ने साइकिल में टंगे सिलेंडरों से एक सिलेंडर को उतारकर ज़मीन पर रख दिया। ज़ीने का दरवाज़ा खुला। महिला ने कहा कि सिलेंडर को सीढ़ियों के पास रख दो। एक लंबी सांस लेते हुए उसने अपनी पेंट की जेब से रूमाल निकालकर पसीना पोंछा और दूसरे हाथ से शर्ट के ऊपर वाली जेब से अख़बार से लिपटे पान के बीड़े को निकालकर मुंह में रख लिया।
महिला ने सिलेंडर को हिला-डुला कर देखा और अपनी पेशानी पर गुस्सा डालते हुए बोली कि भइया इस बार तो सिलेंडर बीस दिन भी नहीं चला। पहले तो एक-डेढ़ महीने तक आराम से चल जाता था। अब क्या सिलेंडर कम वज़न का आने लगा है!
महिला के सवाल पर राकेश चुपचाप खड़ा रहा। उस चुप्पी को तोड़ते हुए महिला फिर से बोली चलो मैं सिलेंडर तोल लेती हूं, लाओ कांटा दो! राकेश के पास कांटा नहीं था। वो महिला गुस्से से भरी हुई पड़ोस के एक घर से कांटा मांग कर लाई और राकेश के हाथों में थमा दिया। जब उसने सिलेंडर तौला तो उसमें दो किलो गैस कम थी, ये देखकर वो सकपका गया। महिला ने सवालों की झड़ी लगा दी जिसका राकेश के पास कोई जवाब नहीं था लेकिन वो उसकी हां में हां मिला रहा था।
उसने अफसोस वाली मुद्रा में बात को टालने की कोशिश की पर कामयाब नहीं हुआ तब उसने ‘आगे से ध्यान रखेंगे’ कहकर बात को ख़त्म किया। उसने तुरंत अपनी शर्ट की जेब से पर्ची निकाली और उस पर एक नज़र दौड़ाकर हस्ताक्षर करने के लिए महिला के हाथों में थमा दिया। महिला ने अपनी शिकायत ज़ारी रखते हुए पर्ची थाम ली और हस्ताक्षर करने के लिए उससे पेन मांगा। राकेश ने दबी आवाज़ में कहा कि आज मैं पेन लाना भूल गया!
महिला बड़बड़ाती हुई कमरे में गई और पेन लाकर पर्ची पर हस्ताक्षर करके पेन और पर्ची दोनों राकेश को थमा दिया। राकेश ने भी जल्दी से पर्ची पर हस्ताक्षर करके उसके दो टुकड़े किए और उसका एक हिस्सा अपनी जेब में डाला और दूसरा हिस्सा व पेन महिला को पकड़ा दिया। महिला ने अपनी मुट्ठी में भिंचे रुपयों को निकाला और राकेश को दे दिए। राकेश ने रुपए गिने और पेंट की जेब में डालकर ख़ाली सिलेंडर अपनी साइकिल पर टांगा और महिला से नज़रें चुराता हुआ चल दिया।
राकेश गुनगुनाता हुआ एक गली से दूसरी गली जाने लगा। सुहावने मौसम का मज़ा लेते हुए अपनी धुन में था कि उसके फ़ोन की घंटी की आवाज़ सुनकर उसने अपने पैरों को लगाम दी और साइकिल रोक दी। फ़ोन को कान से लगाकर बोला, हैलो! कौन बोल रहा है? चौधरी जी कहो क्या हुआ! सिलेंडर ख़त्म हो गया क्या? हां.. हां है न आपकी पर्ची मेरे पास। बस मैं अभी आया थोड़ी दूरी पर ही हूं। थोड़ा समय तो लगेगा ना। हां जल्दी ला रहा हूं! राकेश ने फ़ोन काटा और साइकिल की गद्दी पर बैठकर फिर गाने लगा – चल अकेला, चल अकेला…। ये गाने के सुर उसकी थकावट को मिटाकर उसके सुनहरे लम्हों में तब्दील कर रहे थे।
दिन करवटें बदल रहा था। शाम के चार बज चुके थे। कई जगह सिलेंडर पहुंचाने के बाद राकेश अब थक सा गया था। उसका शरीर अब उसे और साइकिल चलाने की इज़ाजत नहीं दे रहा था। अब उसे किसी ख़ाली जगह की तलाश थी जहां वो बैठकर थोड़ी देर आराम कर सके। उसकी नज़रें चारों तरफ़ जगह तलाश रही थी। एक दुकान पर ताला लगा देखकर उसने अपनी साइकिल रोक दी। अपने हाथ-पैर को ज़ोर से झटक कर अंगड़ाई लेता हुआ उस पटिया पर जा बैठा।
होठों पर जीभ फिराई तो हाथ अपने आप शर्ट की जेब में चला गया। पान का स्वाद मज़े से लेते हुए वो अपनी थकान मिटा ही रहा था कि रास्ते से गुज़रते हुए एक साठ साल के बुजुर्ग पर उसकी नज़र पड़ी। उन्होंने भी राकेश को देखा और बोले तू यहां क्या कर रहा है? राकेश भी एकदम खड़ा होते हुए बोला मास्टर जी आप! हां पोते की किताबें खरीदने आया था दुकान पर – ये कहकर वो राकेश के बग़ल में ही बैठ गए। उन्होंने राकेश से पूछा और बता कैसा चल रहा है काम-धाम! हमारा भी सिलेंडर ख़ाली होने वाला है! मास्टर जी की बात टालते हुए राकेश ने कहा कि आप चिंता न करें जैसे ही आपकी पर्ची मेरे हाथों में आएगी सबसे पहले मैं आप ही का सिलेंडर लगाऊंगा। मास्टर जी ने प्यार से उसके कंधे पर हाथ फेरते हुए कहा ठीक है बेटा!
पुराने गानों को गुनगुनाता हुआ भरे सिलेंडरों की साइकिल लेकर चला ही था कि फ़ोन की घंटी फिर बज उठी। साइकिल को गोदाम के कोने में खड़ा करके फ़ोन को कान से लगाया और बोला हैलो कौन बोल रहा है? सुनाई नहीं दे रहा इतना शोर है! हां-हां, ठीक है, अब सुनाई दे रहा है। हां गुप्ता जी बस रास्ते में ही हूं ला रहा हूं बस पांच-दस मिनट में पहुंच जाऊंगा। फ़ोन को जेब में रखकर साइकिल रफ़्तार से गुप्ता जी के घर की तरफ़ बढ़ा दी। घर पूरा दुल्हन की तरह सजा हुआ था। चमचमाते पीले रंग के पेंट के ऊपर रंग-बिरंगी लाइटों को देखकर राकेश पांच-सात मिनट गेट पर ही खड़ा होकर घर को देखता रहा फिर उसने गुप्ता जी का नंबर मिलाया। थोड़ी देर में गुप्ता जी घर से बाहर निकल आए। उन्होंने राकेश से पर्ची लेकर हस्ताक्षर किए और पैसे देकर कहा बाकी पैसे तू रख ले। राकेश ने उन्हें धन्यवाद किया और अगले पते की तलाश में निकल गया।
आज राकेश बहुत खुश था कि उसे बक्शीश में पचास रुपए मिल गए थे। आज बोनी अच्छी हो गई यही गुनगुनाते हुए उसने साइकिल की रफ़्तार तेज़ की और फिर से पुराने गानों की धुन में खो गया। गली से गुज़र ही रहा था कि अपने नाम की आवाज़ सुनकर वो ठिठका और साइकिल रोक कर पीछे मुड़कर देखने लगा। एक दरवाज़े के बाहर एक शख्स ने हाथ के इशारे से उसे बुलाया। वो साइकिल वहीं छोड़कर उनके पास गया। दोनों एक-दूसरे को देखकर मुस्कुराए। राकेश उन्हें देखकर बोला ओ… बाबूजी आप! उस शख़्स ने राकेश से कहा कि मैंने तुझे ये बताने के लिए बुलाया है कि हम लोग फिर से यहीं आ गए हैं हमारा सिलेंडर अब यहीं देना! उन्होंने राकेश से पटिया की तरफ़ बैठने का इशारा करते हुए कहा चाय पियोगे! राकेश अपनी साइकिल घुमाकर पटिया के पास ले आया। पांचों सिलेंडरों की डिलीवरी हो चुकी थी।
चाय का कप हाथ में पकड़ाते हुए उन्होंने राकेश से पूछा कहां रहते हो! परिवार में कौन-कौन है! चाय का घूंट गले में उतारते हुए राकेश ने कहा यहीं पास की एक कॉलोनी में दोस्तों के साथ रहता हूं। वैसे मैं यू.पी. के एक छोटे से गांव अलीपुर का रहने वाला हूं पर काम के सिलसिले में अकेला दिल्ली आया हूं। यहां रहते हुए मुझे पांच साल हो गए हैं। गांव में घर में मां, पिताजी, छोटी बहन, मेरी पत्नी और दो लड़के हैं- एक की उम्र पांच साल का है और दूसरे आठ का। पिताजी गांव में खेती करते हैं। मां खेतीबाड़ी में उनकी मदद करती है।
घर केवल पिताजी की खेती से चल रहा है। घर में बड़ा होने के कारण पढ़ाई नहीं कर पाया। मैं बचपन से ही पिताजी के साथ खेती में हाथ बंटाने लगा था। जैसे-जैसे समय बीतने लगा वैसे-वैसे हमारी ज़रूरतें बढ़ने लगी जो खेती से पूरी नहीं हो सकती थी। साथ ही अब मां-पिताजी की उम्र भी बढ़ रही रही थी। अब ज़्यादा काम करना उनके बस में नहीं रहा। मैंने तभी से सोच लिया था कि मुझे कुछ करना पड़ेगा। कुछ साल पहले गांव से मेरा दोस्त शहर में काम की तलाश में आया था। वो शहर में ऑटो चलाता है। धीरे-धीरे यहां उसका काम पक्का होता गया और अपने परिवार को हर महीने गांव में रुपए भेजने लगा। ये देखकर मैंने उससे बात की और अपने घर के हालात उसे बताए। कुछ दिनों बाद उसका मुझे फ़ोन आया। उसने मुझे शहर बुलाया फिर उसी ने मुझे सिलेंडर डिलीवरी का काम दिलवाया। मैं भी मेहनत से ये काम करने लगा और महीने के महीने घर पैसे भेजने लगा।
राकेश की जेब में पड़े फ़ोन की घंटी फिर बजी। उसने फ़ोन कान पर लगाया और हैलो कहा। दूसरी तरफ़ से उसके पिताजी बात कर रहे थे। अपने पिताजी की आवाज़ सुनकर उसने कहा नमस्ते पिताजी मैं अभी आपको ही याद कर रहा था। हां मैं ठीक हूं, माफ़ करना पिताजी दिन में समय नहीं मिला था फ़ोन करने का। काम ठीक चल रहा है! अब आपकी तबीयत कैसी है? बस आप अपनी सेहत पर ध्यान दें!
मां कहां हैं! नमस्ते मां! मैं अच्छा हूं। हां खाना खा लिया था। वो समय नहीं मिला था। हां मेरी तबीयत बिल्कुल ठीक है। अब आपके पैरों का दर्द कैसा है? चलो अच्छा है कि अब आपको आराम है बस दवाइयां समय पर लेती रहो ठीक है! और मेरी प्यारी बहन सिमरन क्या कर रही है! अच्छा खाना बनाने में अपनी भाभी की मदद कर रही है। उससे कहना कि मैं उसके लिए सुंदर से कपड़े लाऊंगा जिन्हें देखकर वो बहुत खुश हो जाएगी।
राहुल और रोहित कहां हैं! खेलने दो उन्हें! उनसे कहना कि पापा उनके लिए बहुत सारे खिलौने लाएंगे। चिंता न करो मां आपके लिए, आपकी बहू और पिताजी के लिए भी कुछ न कुछ ज़रूर लाऊंगा। राकेश ने सभी सवालों का जवाब दिया और कहा अच्छा मां नमस्ते, बाद में बात करता हूं। उसने फ़ोन काटा और उसे जेब में डालकर अगले सिलेंडर की डिलीवरी के लिए चल पड़ा।
अदनान बी.ए.फर्स्ट ईयर के छात्र है.। सुंदर नगरी में रहते हैं। इनका जन्म सन 1999 में दिल्ली में हुआ। पिछले पांच सालों से अंकुर क्लब से जुड़े हैं। कहानियों को अलग-अलग संदर्भों में सुनाना और लिखना इन्हें पसंद है।
The post सिलेंडर के बोझ से दबी साइकिल और उम्मीदों से भरी ज़िन्दगी appeared first and originally on Youth Ki Awaaz, an award-winning online platform that serves as the hub of thoughtful opinions and reportage on the world's most pressing issues, as witnessed by the current generation. Follow us on Facebook and Twitter to find out more.