ये वर्चुअल सोसायटी है, ये मतलब “वो” जिसपर हमारी उंगलियां खटाखट चल रही है। यहां लोगों की शारीरिक उपस्थिति नहीं होती है। इंटरनेट और उंगलियों के माध्यम से एक सोसायटी या कम्युनिटी बनी हुई है। यहां हम लोगों को आमने-सामने से नहीं देख पाते और देख भी ले लेते हैं तो छू नहीं पाते।
लेकिन मुझे लगता है बस हम छू कर ही नहीं देख पाते बाकी तो सब यहीं दिखता है। हज़ारों –करोड़ो अंजान लोगों को देखते हैं, उनकी लेखनी पढ़ते हैं, उनकी रिकॉर्डिंग्स को सुनते हैं, अमूमन लोग जब न्यूज़ या किसी इवेंट से अलग कुछ लिखते हैं तो वो अपने या आस-पास की चीजों के बारे में लिखते हैं। किसके साथ क्या हो रहा है, कौन कहां है, कैसे है, सब पता चलता है। धीरे-धीरे एक जान-पहचान सी हो जाती है।
ये तो अंजान लोगों की बात थी जिनसे हम यहीं आकर मिलें, लेकिन जिन्हें हम जानते हैं उनके बारे भी अब हमें एक्चुअल दुनियां से ज्यादा वर्चुअल दुनियां में ही आकर पता चलता है। कॉलेज में साथ पढ़ने वाला हमारा दोस्त इंगेज्ड हो गया ये तो तब पता चलता है, जब वो लिख देता हैं इंगेज्ड विद समवन! स्कूल के दोस्त की शादी हो गई ये तो तब पता चलता है जब उसकी ब्याह वाली फोटो देखते हैं! सामने वाली भाभी को लड़की हुई ये तब पता चलता है जब लिख देती हैं ब्लेस्ड विद बेबी गर्ल! साथ में तैयारी करने वाले मित्र का नेट-जेआरएफ निकल गया ये भी तब पता चलता है जब वो लिख देता है फाइनली नेट विद- जेआरएफ क्लियर्ड!
असल जिदंगी में हर कोई गंभीर हो गया है, सब कम बोलने लगे हैं, बस उंगलियां बोल रही है।
सब यहीं है जिसे जानते हैं वो भी और जिसे नहीं जानते हैं वो भी, प्यार-मोहब्बत सब यहीं है। ब्रेकअप – पैचअप सबकुछ। फिर असल में क्या है? या एक्चुअल-वर्चुअल सब ऑवरलैप सा हो गया है।
इकॉनोमिक ज्योग्रफी के हिसाब से 90’s के बाद LPG का दौर आया, मतलब लिब्रलाइजेशन, प्राइवेटाइजेशन और ग्लोबलाइजेशन, अब वन अंब्रेला थ्योरी पर काम हो रहा है, मतलब पूरे विश्व को एक छतरी के नीचे लाना, सो सबसे मुंहा-मुंही बात करना या मिलना मुमकिन नहीं है।
लेकिन ऐसी थ्योरी होने का क्या फ़ायदा जहां एक कमरे में रहने वाले लोगों की आवाज़ कम और उँगलियाँ चलने की ज्यादा आवाज़ आए।
वर्चुअल दुनिया की उपयोगिता को बिल्कुल भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। लेकिन क्या आज ये ज़रूरी नहीं लगता कि हमलोग एक्चुअल-वर्चुअल दुनिया के बीच का जो स्पेस है उसे बनाएं रखें नहीं तो शायद हमें किसी एक दुनिया की कुर्बानी ना देनी पड़ जाए!
The post अब पड़ोसी से कोई नहीं बोलता, बस उंगलियां किसी स्क्रीन के सामने टिपिर टिपिर करती हैं appeared first and originally on Youth Ki Awaaz, an award-winning online platform that serves as the hub of thoughtful opinions and reportage on the world's most pressing issues, as witnessed by the current generation. Follow us on Facebook and Twitter to find out more.