आस्था जुनून पैदा करती है, अपने विश्वास की रक्षा के लिए मर मिट जाने का जुनून। लेकिन इस देश में गाय से जुड़ी आस्था की हालत विचित्र है। गौशाला में भूख से तड़प-तड़प कर मरती गायें हों या सड़कों पर भूख के कारण पॉलीथिन खाकर दम तोड़ती गायें। उनकी हालत पर तथाकथित गौभक्तों की आस्था न तो कभी मचलती है और न कभी उबाल खाती है।
उनकी आस्था तभी हिलोरें मारती है जब किसी मुसलमान या दलित के गायों के साथ दुश्मनी निभाने की अफवाह फैली हो। ऐसी अफवाह पर आसानी से विश्वास कर लेने और खुद अदालत बनकर आरोपी को मौत की सजा दे डालना तथाकथित गौभक्तों की फितरत बन गई है।
संसद सत्र की पूर्व संध्या पर हुई सर्वदलीय बैठक में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी ऐसे गौरक्षकों पर फट पड़े। उन्होंने ऐसे लोगों को असामाजिक तत्व करार दिया और इनकी गुंडागर्दी से सख्ती से निपटने की हिदायत राज्य सरकारों को दे डाली। हालांकि गौरक्षा के नाम पर हो रही अराजकता और हिंसा को लेकर प्रधानमंत्री के उद्देलन के पीछे उनके विरोधियों को उनकी राजनीतिक पैंतरेबाजी दिखाई देती है। उनका मानना है कि संसद सत्र में विपक्ष ने इस मुद्दे पर हमलावर तैयारी कर रखी थी। प्रधानमंत्री ने पहले ही गौरक्षा का ठप्पा लगाए गुंडों को ललकार कर इसकी हवा निकाल दी है।
यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि गुजरात के मुख्यमंत्री रहे नरेंद्र मोदी और देश के सर्वोच्च कार्यकारी पद प्रधानमंत्री बने नरेंद्र मोदी की सोच में बहुत अंतर आ गया है। अब उनका दायरा कूपमंडूक का नहीं है। विश्व नेता के रूप में अपने को उभारने की कवायद में उन्होंने जान लिया है कि सभी समुदायों की स्वीकृति प्राप्त करना इसके लिए अपरिहार्य है। उन्हें संयुक्त राष्ट्र संघ के मानवाधिकार चार्टर की कसौटी की चिंता करना अब जरूरी लगने लगा है। इसलिए अब वे एकतरफा नहीं सोच पाते। उन्हें विश्व जनमत के सामने भारत की छवि को ध्यान में रखना पड़ता है। जो कि असल में उनकी खुद की वैश्विक छवि का सवाल ज्यादा है। इसलिए उन्होंने गौरक्षा के नाम पर सक्रिय गुंडों को देश की छवि खराब करने वाले तत्व बताये हैं जो प्रकारांतर से यह स्पष्ट करने वाला है कि उन्हें देशभक्ति की असली परिभाषा समझ में आ चुकी है।
जो सभ्यता जितनी पुरानी है उसने उतने ही ज्यादा इतिहास के पड़ाव पार किए हैं। इसमें कई मोड़ भी होते हैं। मतलब साफ है कि पुरानी सभ्यता का देश आगे बढ़ने के लिए समय की सुई को पीछे ले जाने की क्रूरतापूर्ण जिद न ठाने तो अच्छा है। इतिहास में मूल भारतीय समाज जिनसे उत्पीड़ित और पददलित हुआ वे विदेशी आक्रांता थे। उन्हें देश के अंदर अपना जेंडर बढ़ाने के लिए कई नुस्खे तलाशने पड़े जिनमें एक नुस्खा धर्म के धरातल पर एकरूपता को स्थापित करने की कोशिश भी शामिल होगी। बावजूद इसके अधिकांश भारत का धर्म परिवर्तन लंबे समय तक विदेशी आक्रांताओं के शासन के बावजूद नहीं हो सका। लेकिन इन कोशिशों में भारतीय समाज में धार्मिक वैराइटी बढ़ी है।
दुनिया को चलाने में कोई ऐसे सूत्र सामने नहीं आये हैं कि जहां एक ही धर्म के लोग रहते हों वहां अलग-अलग देश के रूप में उनका बंटवारा नहीं हो। जहां एक नस्ल के लोग रहते हैं और जिनकी भौगोलिक सीमाओं में भी पृथक्करण नहीं है वे एकजुट बने रहें। अगर ऐसा होता तो इतने मुस्लिम देश न होते। यूरोप में इतने अलग-अलग देश न बनते। दूसरी ओर यह भी सूत्र नहीं बन सका कि अगर एक समाज कई धर्मों और नस्लों में बंट जाए तो वह एक नहीं रहेगा।
किसी देश और समाज की अपनी विलक्षणताएं होती हैं। जब कोई समाज यह इरादा बनाता है कि एक रहना है तो इन्हीं विलक्षणताओं का समायोजन करके अखंडता का पहले से न सोचा हुआ फार्मूला तलाश ही लेता है। अमेरिका इसका सबसे ज्वलंत उदाहरण है। अमेरिका का पूरा नाम संयुक्त राज्य अमेरिका है क्योंकि इसके विस्तार में कई अलग-अलग देश इसके तहत जोड़े गये हैं। अमेरिका के शासक वर्ग में कोई भी अमेरिकी नस्ल के मूल से जुड़ा नहीं दिखाई देता। दुनिया के हर कोने के सक्षम लोगों को उसने अपनाने के लिए हाथ बढ़ाए। जो अमेरिका का हो गया उसका मूल देखकर आगे बढ़ने में उसके सामने रुकावट डालना अमेरिकन समाज की नीति नहीं रही है। बॉबी जिंदल जैसे शब्दजात अमेरिकन को इस कारण उक्त देश के सर्वोच्च पद की रेस में दौड़ने से नहीं रोका जाता, लेकिन भारतीय समाज में जड़मति लोगों की संख्या बहुत ज्यादा है। जिनका प्राकृतिक सत्यों से प्रबल दुराग्रह है। इसलिए वे देश की नियति के साथ बेमतलब की मशक्कत में उलझे हुए हैं और ऐसी समस्याओं के जनक बन रहे हैं जो वास्तविक नहीं हैं।
वे मुसलमानों से, दलितों से उलझने का बहाना तलाशते हैं। इसलिए उनकी गाय अस्मिता तभी उबाल खाती है जब इस बहाने से उन्हें इन तबकों की अक्ल ठिकाने करने का मौका मिले।
सच्ची आस्था निर्वाह के लिए कुर्बानी मांगती है। हिंदू समाज में धनीमानी लोगों की संख्या काफी तादाद में है। अगर वे ठान लें तो उन्हें सब कुछ लुटवाना भी नहीं पड़ेगा, वे कुछ योगदान से ही यह बंदोबस्त कर सकते हैं कि एक भी गौमाता सड़क पर भूखी भटकती न दिखाई दे। लेकिन आस्था भी है और अपना माल खर्च न होने देने की चिंता भी है। उन्हें मालूम नहीं है कि गाय और गंगा को मां का दर्जा देने की भारतीय समाज के पूर्वजों की धरोहर कितनी महान है। गाय और गंगा किसी न किसी रूप में पुरातन समय में लोगों के जीवन को शक्ति देती रही हैं। उनके प्रति पूज्य भाव की कल्पना जिस समाज में आयी उससे ज्यादा धार्मिक तौर पर बड़ा समाज कौन हो सकता है। लेकिन उनकी नालायक संतानें आज गायों के नाम पर गौशाला के अनुदान को चट करने की नीचता दिखाने में लगी हैं।
गौरक्षा के नाम पर हिंसा का मामला हो या झूठे शास्त्रों ने जिनका दर्जा नीच तय कर रखा है, ऐसे बढ़ गये तबकों को उनकी औकात में वापस लौटाने का बर्बर और क्रूर भाव, यह भारतीय समाज को इतिहास की परछाइयों से लड़कर खुद की बर्बादी का सामान जुटाने के लिए तैयार कर रहा है। पाकिस्तान के निर्माण के पीछे दरअसल इस्लाम था या ब्रिटिश साम्राज्य की कुटिलता, जो आज़ादी देते समय इस बात का इंतज़ाम कर रहा था कि यह विशाल देश छोटे-छोटे खंडों में बंट जाये। इसलिए पाकिस्तान के निर्माण के कारणों पर तटस्थता से मनन करने की ज़रूरत है। ऐसा किए जाने पर अच्छे-अच्छों का ब्रेन वाश हो जाना सम्भव है।
आज के भारतीय मुसलमान विदेशी आक्रांता नहीं हैं, न ही उनके वंशज हैं। उनका डीएनए इस महाद्वीप को छोड़कर दुनिया के शेष मुस्लिम विश्व में पूरी तरह मिसफिट है।
इसलिए वे यह देश छोड़कर कहीं नहीं जा सकते। आज़ादी के 70 सालों में भारत में कोई इस्लामिक विभाजन नहीं हुआ बल्कि मक्का-मदीना की इस्लाम जगत में सबसे पाक हैसियत के समानांतर या उनसे बढ़कर पाकिस्तान बनाने की प्रक्रिया ने जो गुनाह किया गया है उसी के कुफ्र की सज़ा अल्लाह ने इस बीच पाकिस्तान में एक बंटवारा करा देने के रूप में दी है।
इस्लाम को लेकर देश में झगड़ों के उदाहरण गिनाना गैरवाजिब हैं क्योंकि असंभव से लगने वाले विरोधाभासों के इस देश में प्रांतीयता, नस्ल से लेकर भाषा के स्तर तक के तमाम झगड़े इस स्तर पर चलते रहते हैं कि उनमें अलगाववाद का चढ़ता पारा थर्मामीटर तोड़ने लगता है। बात पंजाब की हो, तमिलनाडु की हो या महाराष्ट्र की इस सच्चाई के प्रतिबिंब इतिहास के झरोखे में आसानी से देखे जा सकते हैं।
तो हमें सही तरह से अग्रसर होने के लिए अपना प्रस्थान बिंदु देखना है जो वर्तमान का परिदृश्य है। इसमें इस्लाम के दूसरी कौमों के साथ ऐसे सह अस्तित्व और साहचर्य का गर्व करने योग्य अजूबा दिखाई पड़ता है। जो दुनिया में न कहीं हुआ है और न होगा। इसलिए काल्पनिक चिंताएं छोड़कर प्रगति की वास्तविक अपेक्षाओं को पूरा करने में ऊर्जा लगाने की मशक्कत होनी चाहिए।
गौरक्षा के नाम पर गुंडागर्दी के खिलाफ प्रधानमंत्री की चेतावनी हाल में तपती असहिष्णुता के दौर में समग्र स्थितियों का एक पहलू भर है। प्रधानमंत्री को नये सामाजिक समायोजन के लिए समग्रता में लोगों का नया माइंडसेट तैयार करने का कार्यभार संभालना होगा क्योंकि इस समय देश में वे सबसे ज्यादा अपीलिंग के रूप में स्थापित हैं। मुसलमानों में ही नहीं दलितों और पिछड़ों में भी दुष्चिंताएं घर कर चुकी हैं, जिनका अंत किया जाना अनिवार्य कर्तव्य है ताकि देश एक सूत्र में बंधकर विश्व में सर्वश्रेष्ठता के बेजोड़ नमूने के तौर पर अपने को उभारने की कटिबद्धता से ओतप्रोत हो सके।
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