“एक गुड़िया की कई कठपुतलियों में जान है, आज शायर यह तमाशा देख कर हैरान है।” अभी मेरी स्थिति दुष्यंत कुमार की इन पंक्तियों जैसी ही है, पिछले कुछ समय से मैं भी बहुत हैरान हूं। देश की मौजूदा राजनीति, उस पर लोगों की प्रतिक्रिया, मानव का सामाजिक व्यवहार और समाज की उदासीनता मुझे बार-बार अपने अंदर झांकने को मजबूर कर रही है। मेरे मन में अक्सर यह सवाल आता है कि आखिर आम जनता देश के नेताओं का बचाव क्यों करती है? क्या उसे ऐसा लगता है कि उसने जिस नेता को वोट किया है, उसके हर फैसले का बचाव करना ही उसका धर्म है? पार्टी के पदाधिकारी व कार्यकर्ताओं की बात तो समझ में आती है, लेकिन आम लोगों को ऐसा करके क्या सुख मिलता है? कहीं देश की मौजूदा पीढ़ी लोकतांत्रिक व्यवस्था का मतलब वोट देना भर ही तो नहीं समझती है? क्या लोग आज भी राजतंत्र वाली व्यवस्था में ही जीना चाहते हैं? आखिर हर काम के लिए हमें नेताओं की ज़रूरत ही क्यों होती है?
इन सवालों का जवाब ढूंढ़ने के दौरान मैं यह भी सोचता रहा कि कहीं मेरी सोच नकारात्मक तो नहीं हो गयी? इसी बीच अगस्त के पहले सप्ताह से पूरा उत्तर बिहार बाढ़ की चपेट में है। इस आपदा के दौरान मैं चुपचाप नेताओं की गतिविधि पर ध्यान दे रहा था। आश्चर्य हुआ कि सभी को बाढ़ में डूब रहे लोगों से ज़्यादा अपनी राजनीतिक शक्ति स्थापित करने की चिंता सता रही थी। बाढ़ क्षेत्र में इन नेताओं से ज़्यादा मेहनत तो सरकारी नौकरी कर रहे डीएम-एसपी कर रहे थे। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने हवाई दौरा किया, लेकिन आमलोग जो बाढ़ में तैर रहे थे, उन्हें बाहर निकालने के लिए सरकार के पास हेलीकॉप्टर का आभाव था। किसी ने सोशल मीडिया पर अच्छा सवाल किया कि चुनाव के समय जिनके पास दर्जनों हेलीकॉप्टर होते हैं, प्राकृतिक आपदा के समय वे कहां गायब हो जाते हैं? फिर भी लोगों में वैसा आक्रोश नहीं दिख रहा, सभी इन सवालों को पक्ष-विपक्ष की तू-तू, मैं-मैं मान कर चुप हैं।
इसी माह 11 अगस्त को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी के संसदीय क्षेत्र गोरखपुर के बीआरडी हॉस्पिटल में ऑक्सीजन की कमी से 48 घंटे से भी कम समय में 36 बच्चों की मौत हो गयी। उसके बाद जब राज्य के स्वास्थ्य मंत्री सिद्धार्थनाथ सिंह का बयान आया, तो शर्म के मारे मेरा मुंह गड़ा जा रहा था। उन्होंने बेशर्मी से कहा कि अगस्त महीने में तो पहले भी बच्चों की मौतें होती रही हैं। जब मीडिया ने अपने तेवर तल्ख किये, तो मुख्यमंत्री ने मीडिया को ही नसीहत देना शुरू कर दिया। मुझे पूरा यकीन है कि लोग इस हत्याकांड को भी भगवान का लिखा संयोग मान कर चुप हो जाएंगे।
15 अगस्त, 2017 को हम सभी ने अपना 71वां स्वतंत्रता दिवस मनाया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बहुत ही शानदार तरीके से अपनी बात रखी, पल भर के लिए लगा कि मोदी जी देश को बदलकर ही मानेंगे। लेकिन मन में सवाल उठना स्वाभाविक है कि तीन वर्षों में देश में क्या बदला? आज ही जब मैं यह आलेख लिख रहा हूं, मुजफ्फरनगर में 18477 कलिंग-उत्कल एक्सप्रेस पटरियों से उतरी हुई है। इसमें 23 लोगों की मौत हो चुकी है और सैंकड़ों लोग घायल हो चुके हैं, इस संख्या के अभी बढ़ने की भी आशंका है। सरकार रेलवे को बदलने की बड़ी-बड़ी बातें और दावे करती है, लेकिन इन दावों की हकीकत यही है कि सिर्फ इस साल छह रेल हादसे हो चुके हैं। दरअसल, इस देश में अभी बातें हो रही हैं। बातों का खेल ऐसा है कि कहना ही क्या? बातों से ही जन-मन को जीत लिया जा रहा है। जहां बातों से जीत नहीं हो पाती है, वहां धर्म का झंडा लहरा दिया जाता है।
जब युवाओं को नौकरी देने पर सरकार से सवाल पूछे जाते हैं, तो वह कहते हैं कि आज तो देश का युवा नौकरी बांट रहा है। हमने रोज़गार के लिए माहौल तैयार किया है। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि दोषी सिर्फ मौजूदा सरकार है। सही मायने में ये सारी राजनीतिक जमात और राजनीतिक रूप से सक्रिय लोग दोषी हैं। आज देश में अधिकांश आबादी उनकी है, जिन्होंने आज़ाद भारत में जन्म लिया है। देश के हर राज्य में इन सरकारों के प्रति सहानुभूति के साथ मुझे देश की युवा आबादी पर पूरा भरोसा है कि वे अपने आचरण में भी लोकतांत्रिक होंगे।
कई भारतीय पुरुषों के जीवन को मैंने झांकने की कोशिश की, तो पाया कि घर में उनका व्यवहार सम्राज्यवादी हो जाता है। एक पिता के रूप में वह व्यक्ति चाहता है कि उसके बच्चे उसकी हर बात मानें। वह घर का सर्वेसर्वा खुद को ही मानता है। हर फैसले में वह अपनी राय को सबसे प्रमुख मानता है। मैंने पत्नियों से डरनेवाले पतियों के चुटकुले तो बहुत पढ़े, लेकिन हालात अभी तक उलट ही देखा है। लेकिन वही व्यक्ति जब ऑफिस आता है, तो वह घोर लोकतांत्रिक हो जाता है। वह चाहता है कि ऑफिस के अधिकारी उसे डांटे नहीं। वह उतना ही काम करे, जितना उसके पास वाले सहकर्मी को करना पड़ता है। हर हाल में वह लोकत्रांत्रिक व्यवस्था चाहता है। इतना ही नहीं वही आदमी जब सब्ज़ी या कोई सामान खरीदने बाज़ार जाता है, तो पूंजीवादी हो जाता है। वह एक-एक रुपये के लिए मोल-भाव करता है। दिन भर धूप में बैठ कर भिंडी बेच रहे वृद्ध से कहता है कि क्या लूट मचा रखी है? इनमें से कुछ लोग वामपंथी भी बन पाते हैं, जब वे सरकार से सवाल पूछना चाहते हैं, वे पूछते भी हैं।
बावजूद इसके देश का जनमानस आज भी लोकतंत्र की ताकत को ना तो समझ पा रहा है और ना ही उसका इस्तेमाल कर पा रहा है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में आज पूंजी इस कदर हावी हो रही है कि कोई आम आदमी चुनाव लड़ना भी चाहे, तो बिना किसी पार्टी की छतरी के नीचे लड़ना संभव नहीं है। हालांकि, लोग मुझे कहेंगे कि देश के पीएम, प्रेसिडेंट को देखो कहां-से-कहां तक का सफर तय किया? लेकिन मुझे तो महज़ कुछ कठपुतलियां दिख रही हैं, जो पूंजी के इशारे पर हर काम कर रही है। पता नहीं मेरी सोच नकारात्मक हो गयी है या सच में आमजन को छला जा रहा है, इसका फैसला तो आपलोगों को ही करना है।
The post बिहार में बाढ़ या गोरखपुर में मरते बच्चे, बस सरकार पर दोष डालना काफी नहीं है appeared first and originally on Youth Ki Awaaz, an award-winning online platform that serves as the hub of thoughtful opinions and reportage on the world's most pressing issues, as witnessed by the current generation. Follow us on Facebook and Twitter to find out more.