स्कूल की नौवीं जमात में “विकास” की परिभाषा बताई गई थी कि विकास एक निरंतर चलने वाली वह प्रक्रिया है जो सकारात्मक बदलाव के तरफ इशारा करती है एक बदलाव जो मानव, समाज, देश व प्रकृति को बेहतरी की ओर ले जाता है। इसमें मानव संसाधन, प्राकृतिक संसाधन, आर्थिक राजनीतिक, सांस्कृतिक, नैतिक व ढांचागत विकास शामिल है।
जब सामाजिक जीवन में विकास के संदर्भों की पड़ताल शुरू की तो वह किताबों की बातों से अलग ही दिखी जो दो फाड़ में बंटा हुआ दिखता है मानवीय विकास और ढांचागत विकास। मानवीय विकास के जद्दोजहद में तमाम नागरिक स्वयं को बेहतर मानव संसाधन बनाने में पूरी ताकत से झोंके हुए है जिसका मानव विकास से कोई लेना-देना नहीं है और ढांचागत विकास के लिए सरकारों ने घोषणाओं और योजनाओं में अपनी पूरी ताकत झोंक मारी है, फिर भी ढांचागत विकास हर बरसाती मौसम के बाद अपना दम तोड़ देता है और अगली किसी योजना की बाट जोहने लगता है।
ढांचागत विकास में सड़क पहली मूलभूत आवश्यकता है जो मानव समुदायों, संस्कृतियों और मानवीय अर्थव्यवस्था को चलयमान बनाए रखता है। इसलिए किसी भी राष्ट्र की अर्थव्यवस्था को जीवन रेखा माना गया है और आसानी से संचालन में लचीलापन, घर-घर तक सेवा और विश्वसनीयता को ज़रूरी बताया गया है।
सड़कों के ढांचागत विकास की बाते मुझे अधिक परेशान इसलिए भी करती है क्योंकि देश के जिस सूबे से मैं आता हूं वहां की सड़कों कि तुलनात्मक समीक्षा राजनीतिक बयानबाज़ियों में कभी हेमामालनी तो कभी दिवंगत ओमपुरी के गालों के साथ की गईं। इसी बिहार के गया ज़िले में दशरथ मांझी ने पहाड़ काटकर सड़क बना दिया जिनसे मिलना हमलोगों में उत्साह भर देता था, जो आज स्कूल के किताबों में दर्ज है और उनपर बनी फिल्म का डायलॉग “जब तक तोड़ेंगे नहीं तब तक छोड़ेंगे नहीं” स्मृतियों में छुपा हुआ है।
ज़ाहिर है तमाम सरकारों ने सड़कों के ढांचागत विकास को ही विकास के रूप में देखा है जबकि वह एक पहलू मात्र है। ढांचागत विकास का पहलू इतना अधिक हावी है कि अपने राज्य की सड़कों की तुलना अमेरिका की सड़को से करना और स्वयं को बेहतर बताने से भी कोई गुरेज़ लोगों को नहीं है। (हालांकि ढांचागत विकास में एयरपोर्ट का निमार्ण, मेट्रो परियोजना को अपने राज्यों में शुरू करना विकास के प्रतिमान रहे हैं।)
सड़कों के विकास और जाल बिछाने के लिए पहले प्रधानमंत्री सड़क विकास योजना, स्वर्णिम चतुर्भुज योजना, टू लेन, फोर लेन, सिक्स लेन उसमें घोटालों पर चर्चा और चुनाव के समय मीडिया कवरेज में उनसे लोगों को हो रहे लाभ की बाइट कॉलेज के दिनों में सुनने को मिलती थी। बाद के दिनों में साइबर स्पेस की खिड़कियों पर काली चमकदार चौड़ी सड़कों की तस्वीरें और फिर राजमार्गों की सेल्फी साझा होनी लगी, यमुना एक्सप्रेस लेन, लखनऊ आगरा एक्सप्रेस लेन। आजकल भारतमाला प्रोजेक्ट की चर्चा खासो आम में सुनने में आ रही है। जिसमें आर्थिक कॉरीडोर राज्यों के सीमावर्ती शहरों और तटीय इलाकों के सड़कों को जोड़नों की चर्चा है। इस बात से कोई गुरेज नहीं है कि बढ़ती हुई जनसंख्या में सड़कों के बेहतरी से राज्य और देश की अर्थव्यवस्था जुड़ी हुई है, इससे देश के जीडीपी पर बड़ा असर पड़ता है।
हैरानी तब अधिक होती है जब देश की जीडीपी को सड़क हादसों के आंकड़े प्रभावित नहीं करते हैं क्योंकि देश में सड़क हादसा एक गंभीर चुनौती है और हर घंटे 17 लोगों की जान जाती है जो किसी महामारी और युद्ध से ज़्यादा है। जिस युवा शक्ति पर देश को दंभ है वो इन सड़क हादसों का सबसे अधिक शिकार है। सड़क हादसों में हो रही मौतों में अधिक समस्या तुरंत इलाज सुविधा मुहैया कराने को लेकर है।
पीड़ितों के इलाज के लिए व्यापक सुरक्षा नीति से इसे कम किया जा सकता है।सड़कों के मामलों में देश या राज्यों की सरकारों ने ट्रांसपोर्ट और डिज़ायनिंग पर अधिक ध्यान नहीं दिया है और ना ही निवेश में कोई रुचि ली है। आमतौर पर ज़्यादा ध्यान सड़क निमार्ण पर ही दिया जाता है।
सड़क हादसों को कम करने के लिए यूरोप की सड़के पतली हो रही है, दक्षिण कोरिया में सारे फ्लाईओवर गिरा दिए जा रहे है, पश्चिमी देशों में हरेक गाड़ियों में स्पीड गर्वनर लगाना अनिवार्य हो गया है। भारत में इस दिशा में अभी तक कोई मूलभूत फैसला सामने नहीं आया है।
सर्वोच्च न्यायालयों के कई फैसले है पर उनपर अमल नहीं के बराबर होता है, सारा जोड़ सड़कों के निर्माण और सेफ्ट्री डाईव के जागरूकता कैम्पनों पर ही है जिसका एक व्य्वसायिक अर्थशास्त्र भी काम करता है इससे गुरेज नहीं किया जा सकता है।
अगर वास्तव में ढांचागत विकास को मानवीय विकास से जोड़ना है तो हमें ढांचागत विकास के पहलूओं को मानवीय संदर्भ में देखना ज़रूरी है क्योंकि केवल ढांचागत विकास देश की अर्थव्यवस्था को गतिशील नहीं बना सकता है। मानवीय क्षमताओं और संभावनाओं के अभाव में विकास के मायने खोखले ही सिद्ध होंगे। सड़कों के लिए बड़ी परियोजना की घोषणाओं और सड़कों के नाम भर बदल देने से ना ही हम मानवीय विकास कर सकते हैं ना ही ढांचागत विकास को मज़बूत बना सकते हैं।
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