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छुटभैय्ये नेताओं की प्रैक्टिस रिंग बन गया है झारखण्ड का कोडरमा ज़िला

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नेता कोई पुराना शब्द नहीं है, यह सदियों से हमारे समाज में मौजूद है जिसके रूप का व्याख्यान कितना भी किया जाए कम है। जब समाज में बेरोज़गारों की संख्या बढ़ने लगती है तो नेता पैदा होते हैं। जब कोई अंधों में काना राजा बनने की तैयारी कर रहा होता है, तब नेता पैदा होते हैं। जब किसी के घर के चूल्हे में हवा नहीं मिल रही होती है, तब नेता पैदा होते हैं और आज कल तो टट्टी-पेशाब जाने को कहने के लिए भी नेता पैदा होने लगे हैं। तो चलिए मिलते हैं इन्हीं नेताओं के कुछ प्रकारों से:

जब झारखण्ड में नेताओं और सत्ता की बात होती है तो झारखण्ड का कोडरमा ज़िला एक बड़ी प्रयोगशाला के रूप में माना जा सकता है। कोडरमा ने झारखण्ड को कई बड़े-बड़े नेता दिए हैं और जब बड़े नेता दिए हैं तो कोडरमा की उम्मीद भी बड़ी ही रही होगी।

कई सवालों को जन्म देने वाली बात यह है कि कोडरमा ने झारखण्ड को इतने बड़े-बड़े नेता क्यों दिए? मतलब साफ है, कोडरमा की आजीविका और विकास, पत्थर और माइका पर सदियों से टिका हुआ है। कोडरमा का सबसे गरीब मज़दूर अपनी आजीविका की तलाश, यहां के जंगलो में जीतोड़ मेहनत से करता है और दिन भर की कड़ी मेहनत से उसे एक रोटी नसीब होती है। अपनी एक वक्त की इस रोटी के लिए कई बार अपने ही हाथों से बनाई इन सुरंगों में अपनी जान तक गंवा देता है और यहीं से शुरू होती है एक नेता के जन्म की कहानी।

जब एक गरीब मज़दूर की मौत हो जाती है तो एक पुरानी प्रथा के मुताबिक ज़िले का हर नेता अपनी उपस्थिति दर्ज कराने उनके घर पहुंचता है। मृत मज़दूर के दर्द और सदमे में डूबे परिवार के साथ यह नेता अपने चमचों से दो-चार फोटो क्लिक करवाता है और फिर लौट आता है। ‘न उधो का लेना, न माधो का देना’ इनकी राजनीति तो अब शुरू हो चुकी है और ये भाई साहब नेता की लिस्ट में आ गए हैं। ये फोटो, सोशल मीडिया में ऐसे पॉलिश कर पोस्ट की जाती हैं, मानो मेम/बाबु  साहब झारखण्ड के CM की कुर्सी के दावेदार हैं।

यह कोडरमा की एक बड़ी सच्चाई है और इस सच्चाई से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता है, जो आज एक ट्रेंड बन चुका है। दिल्ली में महलों के हवाई कमरों में बैठकर कोई माइका मज़दूरों के नाम पर दुकानदारी कर रहा है, तो यहां स्थानीय लोग, जो नेता बनने के सपने देख रहे हैं।

ये जो लोग थोड़ी सी हवा में हंस के पंख की तलाश कर रहे हैं, उन्हें रोटी से ज्यादा मज़हब और भूख से ज़्यादा गाड़ी के ठहराव की चिंता लगी हुई है।

ऐसे प्रयोग तो कोई वैज्ञानिक भी अपने प्रयोगशाला ने नहीं करता होगा, उसे भी शायद अपनी जान ज़्यादा प्यारी होगी। लेकिन यह प्रयोग कोडरमा में हो सकते हैं, क्यूंकि इन लोगों की नज़रों में यहां के आम लोग किसी मूर्ख से कम नहीं, जिन्हें बस ‘हौआ-हौआ’ करना ही आता है।

इसी महाप्रयोग ने कोडरमा की राजनीति को 20 साल तक गर्त में डुबाकर रखा, जहां लोग बस चटनी-रोटी खाकर चौक-चौराहों पर जयकारे लगाते और नेता बनते नज़र आ जाते थे। पूजा के प्रसाद के बाद किसी को कहने की हिम्मत नहीं थी कि हमें भी महाप्रसाद खिलाया जाए, ताकि आम गरीब को भी उस कतार में बैठकर खाने का मौका मिले।

इसे झेलने के बाद लोगों ने बदलाव की आंधी में उन्हें भी उड़ा दिया, पर उस बदलाव की आंधी में जो आया उसने भी भूख को मज़हब के रूप में कॉर्पोरेट के महाप्रयोग का हिस्सा बना दिया। इसने सत्ता का विकेंद्रीकरण कुछ ऐसे किया कि अनगिनत नेता पैदा हो गए, जिन्हें कोडरमा के दर्द से कोई लेना-देना नहीं था। जो महलों में रहे हों और जिन्होंने बोतल बंद पानी पिया हो, वह पानी के एटीएम तक की हवा चलाकर नेता बन गए।

आज ज़िले के हर प्रखंड में असंख्य नेता हैं। अब तो आम आदमी की, राशनकार्ड के नेता, आवास के नेता, शिक्षा के नेता, बकरी घर के नेता और भी न जाने कितने तरह के नेताओं से रोज़ मुलाकात होती रहती है।

प्रखंड कार्यालय के दरवाज़े पर जाते ही नेताओं से मुलाकात हो जाती है। बात कुछ भी हो आपके हाथ में झोला और चंद पेपर होने चाहिए, पॉकेट में पैसा तो ज़रूरी है ही और अब आपका काम शुरू होता है जो खत्म होने का नाम ही नहीं लेता।

ऐसे कई नेताओं से अब, हम जैसे आम आदमी की मुलाकात तो रोज़ चाय दुकान से ले कर राशन दुकान पर होती ही रहती है। आप उनके सपने तो पूछिए जनाब, जीतने से पहले ही ये आपको प्लेन का सफर करवा रहे होते हैं और जीतने के बाद तो ये प्रधानसेवक हैं ही।

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