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अपनी मातृभाषा से बेवफा आशिक की तरह मत मिलिए, उससे भरपूर मोहब्बत कीजिए

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यूनेस्को ने 1999 में 21 फरवरी को अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस के रूप में मनाने की घोषणा की थी। अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस पर पूर्व राष्ट्रपति डॉ. अब्दुल कलाम ने एक बार कहा था, मैं अच्छा वैज्ञानिक इसलिए बना, क्योंकि मैंने गणित और विज्ञान की शिक्षा मातृभाषा में प्राप्त की थी।”

मिसाइल मैन के नाम से मशहूर डॉ. कलाम की तरह मैं खुशनसीब नहीं रहा। मैंने अपनी मातृभाषा तब पढ़ने-समझने की कोशिश की जब अपने ही समुदाय में मातृभाषा में बात नहीं करने के कारण शर्मिंदगी उठानी पड़ी। आज मैं अपनी मातृभाषा मैथिली पढ़, बोल और समझ लेता हूं।

आज मातृभाषा से मेरा संबंध इतना भर रह गया है कि रोज़ाना की भागदौड़ में कोई मैथिली में बात करता है तो एक-दो शब्दों में बात करके खुद को मैथिली भाषी महसूस करवा देता हूं। कभी-कभी चुप भी रह जाता हूं कि सार्वजनिक रूप से पहचान न लिया जाऊं या कभी-कभी हरी मोहन झा के ‘खट्टर काका तरंग’ को पढ़कर गुदगुदा लेता हूं। अपनी ही मातृभाषा से बेवफा आशिक की तरह मिलना, कई बार कामकाज की भाषा का गुलाम होने का एहसास बोध कराता है। आज अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस के दिन बार-बार यह खयाल परेशान कर रहा है कि मातृभाषा दिवस कैसे मनाऊं?

वास्तव में आधुनिकता के साथ दुनिया में जो परिवर्तन हर रोज़ हो रहे हैं, उसमें राष्ट्र/राज्य के नागरिक के रूप में अपनी मातृभाषा के साथ बेवफाई एक अहम ज़रूरत बन गई है। राष्ट्र की भाषा की कल्पना में यह बात निहित है कि वह भाषा जिसे राष्ट्र में रहने वाले सभी लोग समझ सकें और बोल सकें। यह इस तरह की हकीकत की ज़मीन तैयार करता है कि समाज का हर नागरिक अपनी मातृभाषा को लेकर अंर्तविरोधों से भरा हुआ महसूस करता रहे।

अगर इस आधार पर हम मातृभाषाओं का अवलोकन करें कि एक सर्वमान्य राष्ट्र की भाषा के सामने तमाम मातृभाषाओं का संघर्ष किस तरह का रहा है, तो कई परतों को खोल सकेंगे। राष्ट्रभाषा के निर्माण के संघर्षों ने कई मातृभाषाओं की चौहद्दी कैसे तय कर दी, यह समझ सकेंगे। एक ऐसी भाषा की खोज जिसे बहुसंख्यक लोग बोलते हों, वह हिंदवी/हिंदुस्तानिक/हिंदुस्तानी बनी और कई ज़ुबानी और लिखित भाषाओं को खा गई।

लिखित भाषा किसी प्राकृतिक भाषा को भ्रष्ट कर सकती है और ऐसी भाषा पढ़े-लिखे वर्गों का ही विशेषाधिकार बनती है, यह बात तर्कसंगत लगती है।

कम से कम ‘कैथी’ (मध्य-पूर्व भारत की एक) लिपी, उसके प्रयोग और विशेषाधिकार पर यह तर्क सटीक बैठते हुए देखा भी है मैंने। पर मातृभाषाओं के संबंध में यह बात ज़्यादा मुफीद है कि भाषाओं का ज़ुबानी प्रयोग ही किसी भाषा के जीवन को बचाए रख सकता है। यह तर्क तमाम बची हुई मातृभाषाओं को वास्तविकता के अधिक नज़दीक ले जाता है। इस तरह की कोशिश ही भारत जैसे बहुभाषी देश में मातृभाषा के साहित्य और समाज का विस्तार कर सकती है, यह अधिक से अधिक होना चाहिए, तभी ज़ुबानी भाषाएं या कहें कि ‘बोलियां’ बच सकेंगी।

पूर्व राष्ट्रपति डॉ. अब्दुल कलाम की तरह अपनी भाषा में ही शिक्षा प्राप्त करना हम हिंदी भाषी क्षेत्र के लोगों के लिए दूर की कौड़ी ही है, क्योंकि दक्षिण भारत की तरह हमारे यहां भाषा के मज़बूत आंदोलन की परंपरा नहीं रही है। ऐसे में हम आधुनिकता और रोज़ पैदा हो रही ज़रूरतों की लड़ाई में अपनी मातृभाषा की अस्मिता को बचा पाएं, यही अपनी मातृभाषा या ज़ुबानी भाषा के लिए बड़ा योगदान होगा।


प्रशांत प्रत्यूष  Youth Ki Awaaz Hindi फरवरी-मार्च, 2018 ट्रेनिंग प्रोग्राम का हिस्सा हैं।

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