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6 दिन की आशु इसलिए नहीं बच पाई क्यूंकि गरीब माँ-बाप को ईंट भट्टे पर काम करना था

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स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के द्वारा मातृ शिशु स्वास्थ्य के बेहतरी के लिए संचालित विभिन्न कार्यक्रमों के बावजूद स्थाई विकास लक्ष्य से हम काफी दूर हैं।

मातृ शिशु स्वास्थ्य के मुद्दे पर कार्य के दौरान बुनियादी स्वास्थ्य एवं पोषण देखभाल सेवा से वंचित होने, जानकारी, व्यवहार और अभ्यास में खामियों के कारण, कितने ही शिशुओं का जीवन पहला वर्ष पूरा करने से पहले ही खत्म हो जाता है।

खासतौर पर हाशिए पर जीने को मज़बूर समुदायों में यह समस्या गंभीर है। मुसहर समुदाय भी कुछ इसी तरह प्रतिदिन जीवन और मृत्यु के बीच संघर्ष कर रहा है। शिशु मृत्यु की एक ऐसी ही घटना आपके सामने  रखने का प्रयास है, जिससे हम ज़मीनी स्तर पर व्याप्त खामियों को समझ सकते हैं।

मृतका बच्ची: आशु, लिंग: F, आयु: 7 दिन, जन्मतिथि: 4-दिसंबर, 2017, मृत्यु तिथि: 11-दिसंबर, 2017, माँ: तारा, पिता: इंदल, पिंडरा ब्लॉक ग्राम: मारुकडीह (मुसहर बस्ती), ज़िला- वाराणसी, मृत्यु का कारण: इलाज नहीं कराया जा सका। पिता द्वारा बताया गया कि बच्ची की पसली तेज़ चल रही थी, संभवतः निमोनिया की शिकायत थी।

आशु अपने जन्म के सातवें दिन ही गुज़र गई, वह अपने माता-पिता की पहली संतान थी। आशु के माता-पिता, मुसहर समुदाय से हैं और निहायत ही गरीब हैं।

यह दंपत्ति बड़ागांव के चिलबिला ग्राम स्थित स्टील मार्का ईंट भट्टे पर काम करके अपना भरण पोषण कर रहे थे। गर्भवती तारा को स्वास्थ्य एवं पोषण की कोई सेवा नही मिली, चिलबिला की ANM (Auxilary Nurse Midwife या प्रशिक्षित दाई) कभी भी ईंट भट्टे पर नहीं आई।

क्षेत्र की आशा, नगीना ने तारा को आश्वासन ज़रूर दिया था कि वह उसका प्रसव पिंडरा प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र (Primary Health Center या PHC) पर सरकारी एम्बुलेंस की मदद से करवा देंगी, क्योंकि उनका घर पिंडरा के मारुकडीह पश्चिमपुर में था। आशा ने कहा था कि जब प्रसव का दर्द उठे तो फोन पर सूचित कर देना। दर्द उठने पर तारा के पति इंदल ने आशा को कई बार फोन किया, लेकिन एम्बुलेंस की जगह केवल आश्वासन ही मिलते रहे। अंत में वहीं फूस की झोपड़ी में तारा का प्रसव हो गया।

उस समय इस दम्पति के पास खर्च के लिए बिल्कुल पैसा नही था, चूंकि इंदल ने अपनी बहन के इलाज के लिए पहले ही भट्टा मालिक से 15 हज़ार एडवांस लिया था इसलिए खुराकी और प्रसव के लिए उसे खर्च मांगना ठीक नहीं लग रहा था।

प्रसव के दो दिन बाद ही दोनों पति-पत्नी वापस ईंट बनाने के काम में लग गए। यह दिसम्बर की कड़ाके की ठंड का समय था, ऐसे में काम करना भी कठिन था और वो मुश्किल से 200 से 300 ईंट ही बना पाते थे।

खुराकी का खर्च जुटाने के लिए प्रसूता तारा नवजात शिशु को कपड़े में लपेटकर खुले आकाश के नीचे फर्श पर बोरा बिछाकर और एक अन्य बोरे को कंबल की तरह बच्ची को ओढाकर काम में लग गई। छठ्ठी (जन्म के 6वें दिन) के दिन प्रसूता की सास (जो कही दूसरे स्थान पर रहती थी) के द्वारा बच्ची और प्रसूता को (परम्परागत मान्यता के अनुसार) ठंडे पानी से ही नहला दिया गया। पिता इंदल आशंकित था कि कड़ाके की ठंड में स्नान से कहीं बच्ची की तबियत खराब ना हो जाए लेकिन मां के दबंग स्वभाव के कारण वह कुछ बोल नहीं सका।

यहां बता दें कि इंदल की माँ अपने समुदाय की ओझा हैं और उनके समुदाय में उनका प्रभाव बहुत हुआ करता है। जानकारी, अनुभव और पैसों के अभाव में समय रहते उनका ध्यान बच्ची की तेज़ चल रही सांसो की तरफ गंभीरता से नहीं गया। बच्ची का पिता डरा सहमा था और उसका मन विचलित था। वह बार-बार रात में उठकर बच्ची को देखा करता। उसने पत्नी तारा से कहा कि बच्ची को अच्छी तरह कपड़े से ढककर बोरा ओढ़ाकर अपने पास लेकर सुलाए। रात 11 बजे के आस-पास इंदल उठा तो उसने देखा कि बच्ची की पसली नहीं चल रही है, तब उसने अपनी पत्नी तारा को जगाया।

तारा ने बच्ची को हिलाकर जगाने की कोशिश की लेकिन बच्ची के शरीर में कोई हरकत नहीं हुई, पिता ने उसकी नाक के पास उंगली रखकर सांस चलने का आहट ली लेकिन बच्ची की सांसे थम चुकी थी।

निष्कर्ष के रूप में उपरोक्त घटना में बच्ची के मृत्यु के स्पष्ट कारण उभरकर सामने आ रहे हैं –

1)- बच्ची की माँ को गर्भावस्था में किसी तरह की स्वास्थ्य या पोषण सेवा नही मिला।

2)- प्रसव भी असुरक्षित और चुनौतीपूर्ण परिस्थिति में हुआ था।

3)- परम्परा निर्वहन के कारण जच्चा-बच्चा दोनों को ठंड लग गई, पिता के द्वारा बताए गए लक्षणों के आधार पर सम्भवत: बच्ची निमोनिया से पीड़ित हो गई थी।

4)- बहुत खराब आर्थिक स्थिति के कारण नवजात शिशु को खुले आकाश के नीचे बोरे पर बोरे से ढककर सुलाया गया और कड़ाके की ठंड में आजीविका के लिए प्रसूता को काम भी करना पड़ा।

फोटो प्रतीकात्मक है।

 

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