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सुप्रीम कोर्ट का फैसला: भारत में पैसिव इच्छामृत्यु और लिविंग विल जायज़

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यूथेनेसिया, इच्छामृत्यु या मर्सी किलिंग पर दुनियाभर में बहस जारी है। इस मुद्दे से कानूनी पहलू के अलावा मेडिकल और सामाजिक पहलू भी जुड़े हैं और इसे पेचीदा और संवेदनशील मुद्दा माना जाता है। दुनियाभर में इच्छामृत्यु की इजाज़त देने की मांग बढ़ी है। मेडिकल साइंस में इच्छामृत्यु यानी किसी की मदद से आत्महत्या और सहज मृत्यु या बिना कष्ट के मरने के व्यापक अर्थ हैं। क्लिनिकल दशाओं के मुताबिक इसे परिभाषित किया जाता है।

इच्छामृत्यु भारत में यह हमेशा से जटिल मुद्दा रहा है, क्यूंकि भारत में इच्छामृत्यु और दया मृत्यु दोनों ही असंवैधानिक कृत्य हैं। मृत्यु का प्रयास करना यानि आत्महत्या, भारतीय दंड विधान (आईपीसी) की धारा 309 के अंतर्गत का अपराध है।

सुप्रीम कोर्ट ने इच्छामृत्यु को लेकर ऐतिहासिक फैसला दिया है। कोर्ट ने लिविंग विल और पैसिव यूथेनेसिया को कुछ शर्तों के साथ मंजूरी दे दी है। यह फैसला कॉमन कॉज नाम की गैरसरकारी संस्था की याचिका पर कोर्ट ने सुनाया है।

सुप्रीम कोर्ट में चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया दीपक मिश्रा की अगुवाई वाली पांच जजों की संवैधानिक बेंच ने ‘निष्क्रिय इच्छामृत्यु’ और ‘लिविंग विल’ को कुछ शर्तों के साथ अनुमति देते हुए अपनी टिप्पणी में कहा कि मरणासन्न व्यक्ति को यह अधिकार होगा कि कब वह आखिरी सांस ले। कोर्ट ने कहा कि लोगों को सम्मान से मरने का पूरा हक है।

‘लिविंग विल’ एक लिखित दस्तावेज होता है जिसमें कोई मरीज पहले से यह निर्देश देता है कि मरणासन्न स्थिति में पहुंचने या रज़ामंदी नहीं दे पाने की स्थिति में पहुंचने पर उसे किस तरह का इलाज दिया जाए। पैसिव यूथेनेशिया (निष्क्रिय इच्छामृत्यु) वह स्थिति है जब किसी मरणासन्न व्यक्ति के जीवनरक्षक सपोर्ट को रोक दिया जाए। हालांकि ‘लिविंग विल’ अर्थात मौत की वसीयत पर कुछ लोगों ने आशंका जताई है कि इसका दुरुपयोग भी किया जा सकता है।

इच्छामृत्यु के मामले दो तरह के होते है पैसिव और एक्टिव इच्छामृत्यु।

पैसिव इच्छामृत्यु में किसी लाइलाज और पीड़ादायक बीमारी से जूझ रहे व्यक्ति को निष्क्रिय रूप से इच्छामृत्यु दी जाएगी। इसका मतलब यह है कि पीड़ित व्यक्ति के जीवनरक्षक उपायों (दवाई, डायलसिस और वेंटिलेशन) को बंद कर दिया जाएगा या रोक दिया जाएगा और पीड़ित स्वयं मृत्यु को प्राप्त होगा। ऐक्टिव इच्छामृत्यु का अर्थ होता है इंजेक्शन या किसी अन्य माध्यम से पीड़ित को मृत्यु देना। सुप्रीम कोर्ट ने पैसिव इच्छामृत्यु की अनुमति दी है, ऐक्टिव की नहीं। एक्टिव यूथेनेसिया आज भी गैरकानूनी है।

हालांकि पैसिव यूथेनेसिया को पहले ही इजाजत मिल चुकी थी। 40 साल से लाइफ सपोर्ट सिस्टम के सहारे ज़िंदा रही मुंबई की नर्स अरुणा शानबाग मामले में सुप्रीम कोर्ट ने 7 मार्च 2011 को पैसिव यूथेनेसिया की इजाज़त दे दी थी। जिसमें केंद्र सरकार ने भी एक ड्राफ्ट बिल ‘मेडिकल ट्रीटमेंट ऑफ टरमिनली इल पेशेंट (प्रोटेक्शन ऑफ पेशेंट एंड मेडिकल प्रेक्टिशनर) बिल, 2016’ तैयार किया था। इसमें पैसिव यूथेनेसिया की बात तो थी, लेकिन ‘लिविंग विल’ शब्द का कहीं उल्लेख नहीं था।

इससे पहले अक्तूबर को हुई आखिरी सुनवाई के दौरान भी केंद्र सरकार ने लिविंग विल का विरोध किया था, केंद्र सरकार ने इसका दुरुपयोग होने की आशंका जताई थी। लेकिन इस फैसले ने पैसिव यूथेनेसिया के साथ लिविंग विल को भी मंजूरी दे दी है। कॉमन कॉज़ के वकील प्रशांत भूषण के अनुसार, कोर्ट ने कहा कि किसी भी व्यक्ति को ये फैसला लेने का पूरा अधिकार है कि अगर उसके ठीक होने की उम्मीद नहीं है तो उसे लाइफ़ सपोर्ट सिस्टम की मदद से ज़िंदा ना रखा जाए। उस व्यक्ति के फैसले का डॉक्टर और उनके परिवार को सम्मान करना होगा।

किसी की भी पैसिव यूथेनेसिया और इच्छामृत्यु के लिए लिखी गई वसीयत (लिविंग विल) कानूनी रूप से मान्य होगी। यानी कोई भी व्यक्ति लिविंग विल छोड़कर जा सकता है कि अगर वो अचेत अवस्था में चला जाए और स्थिति ऐसी हो कि सिर्फ कृत्रिम लाइफ सपोर्ट सिस्टम की मदद से ही उसे ज़िंदा रखा जा सकता है।

अगर कोई व्यक्ति अचेत है और विल नहीं लिखी है और उसे सिर्फ लाइफ सपोर्ट सिस्टम से ही ज़िंदा रखा जा सकता है तो उसका इलाज करने वाले डॉक्टर और उसके परिजन मिलकर फैसला ले सकते हैं।

पैसिव यूथेनेसिया उन मरीजों के लिए लिए बेहतर साबित होगा जो कभी ना ठीक हो पाने वाली बीमारी से पीड़ित हैं और घोर पीड़ा में जीवन काट रहे हैं। उन्हें सम्मान के साथ अपना जीवन खत्म करने की अनुमति मिल जाएगी लेकिन ‘जीवेम् शरदः शतम्’ के ध्येय वाली भारतीय मनीषा तथा संस्कृति में प्रत्येक दशा में जीवन रक्षा करने का आदेश समाहित है जहां ज़िंदगी से पलायन वर्जित माना जाता है, ऐसे में समाज में भी संतुलन की आवश्यकता होगी।

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