हालाकि बात थोड़ी पुरानी हो गई है, पर प्रतिक्रिया उतनी ही ज्वलंत और कड़वी आ रही हैं। यहां मैं बात कर रही हूं गिलू जोसफ के ब्रेस्ट फीडिंग कवर इमेज के मुद्दे की। कई जगह लेख पढ़े, कई लोगों से बातें हुयी, लेकिन 10 में से एक-आधी ही प्रतिक्रिया मॉडल और इमेज के पक्ष में मिली, बाकि सब तो बस सलाह दे रहे थे।
“बदन बेचना है तो ये बाज़ार में क्यों नहीं बैठ जाती।”
“अरे, ये सारी ऐसी ही होती हैं, पैसे के लिए कुछ भी कर जाती हैं।”
“इनको बस पैसे से मतलब है।”
और भी न जाने क्या-क्या। वो मर्द भी बोलने के लिए आगे आए हैं, जिनकी हवस महिला स्तन का आकार बढ़ने के साथ ही बढ़ने लगती है। बच्चा तो शायद उन्हें तस्वीर में दिखा भी न हो, बस आंखें सेक कर आ गए समाज के मैदान में, भोंडी सी टिप्पणी करने कि भाई गलत है, अश्लील है।
1984 में भारत में एक डाक टिकट जारी किया गया था। ज़रा देखें उसे, मुझे तो गिलु की तस्वीर और इस तस्वीर में कोई अंतर नज़र नहीं आता। हां आज की तस्वीर ज़ HD क्वालिटी की ज़रूर है, लेकिन लगता है कि आज हमारे समाज की सोच इस 1984 की तस्वीर की भांति ही धुंधली और काली पड़ चुकी है।
माँ का अपने बच्चे को दूध पिलाना, समाज की नाक से कब जुड़ गया, पता ही नहीं चला। क्या बच्चे को दूध पिलाने के लिए भी नियम-कानून होने चाहिए? कितने पल्लू से खुद को ढकना है या कितना स्तन दिखना सही है, ये किस संविधान में लिखा है, हमने तो आज तक नहीं पढ़ा!
मैंने तो तब भी लोगों को घूरते देखा है, जब माँ पूरा पल्लू ढककर बच्चे को दूध पिलाती है। नज़रें चुरा-चुरा कर लोग अपनी कल्पनाओं के घोड़े दौड़ा रहे होते हैं। ये तो वही बात हो गई कि ‘नज़र तेरी गन्दी और पर्दा करूं मैं!”
कुछ लोग तो ये भी कमेंट कर गए कि ऐसे सिन्दूर और मेकअप करके कौन माँ अपने बच्चे को दूध पिलाती है?
माँ सोते, जागते, रोते, कभी भी दूध पिला सकती है भाई! संसद में माँ अपने बच्चे को भाषण देते हुए दूध पिला सकती है, किस दुनिया में रहते हैं ये लोग? मामला उठा है और शायद 2-4 दिन में खत्म भी हो जाएगा। यही होता आया है, लेकिन यह मामला ज़ेहन में एक सवाल छोड़ जाता है कि लोगों की यह सोच किस सदी में जाकर सुधरेगी? खैर, उम्मीद पर दुनिया कायम है।
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