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“मुख्यमंत्री रमन सिंह जी आपका लोक सुराज अभियान, सोशल ऑडिट के नाम पर धोखा है”

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छत्तीसगढ़ के लिए 2018 महत्वपूर्ण है, क्योंकि इस वर्ष के अंत तक राज्य में विधानसभा चुनाव होने हैं। समय रहते मुख्यमंत्री रमन सिंह 11 मार्च से 31 मार्च तक लोक सुराज अभियान के तीसरे चरण में अपने समाधान शिविर पर निकल पड़े हैं। हाल में उन्होंने अभियान की जानकारी देते हुए कहा कि उनकी सरकार का प्रदेशव्यापी लोक सुराज अभियान देश का सबसे बड़ा सोशल ऑडिट है।

क्या वाकई सरकार के लोक सुराज अभियान को सोशल ऑडिट कहा जा सकता है? यदि ऐसा है तो फिर प्राकृतिक न्याय के मूल सिद्धांत से परे यह बात भी सही होना चाहिए कि व्यक्ति स्वयं पर लगे आरोप की जांच के लिए खुद जज ही बन सकता है और खुद के लिए फैसला भी कर सकता है। ये तो वही बात हुई कि, “बने हैं अहले-हवस, मुद्दई भी मुंसिफ भी; किसे वकील करें, किस से मुंसिफी चाहें”

केंद्र और राज्य की योजनाओं से छत्तीसगढ़ के लोगों को शिक्षा, स्वास्थ से लेकर अन्य जितने लाभ देने का वादा राज्य सरकार ने किया है, वह जनता तक पहुंचा है या नहीं और क्या लोगों के सामाजिक-आर्थिक जीवन पर इनका प्रभाव पड़ा है, इन सभी पहलुओं की ज़मीनी हकीकत हमें सोशल ऑडिट के ज़रिये मिलती है।

"आकर्षक समाधान पेटी "

तो क्या लोक सुराज के ज़रिये योजनाओं और लाभों के ज़रूरतमंद तक नहीं पहुंच पाने की स्थिति और उनके दुष्परिणामों की जानकारी इस बार सरकार जनता के सामने रखने जा रही है?

क्या सरकार अपनी योजनागत और क्रियान्वयन की कमियों का उत्तरदायित्व सार्वजनिक रूप से स्वीकार करने जा रही है? या यह अभियान भी महज कुछ अधिकारियों के अनुपस्थित होने के कारण ससपेंड किए जाने जैसी कुछ रूटीन प्रक्रिया को पूरा करते हुए अखबारी सुर्खियां बटोर कर पूरा मान लिया जाएगा?

लोक सुराज अभियान का आयोजन तिथिवार तीन चरणों में किया जाना है। इसका प्रथम चरण 12, 13 एवं 14 जनवरी 2018 को शुरू हो चुका है, जिसके तहत आम जनता से उनकी समस्याओं के संबंध में आवेदन मांगे गए थे।

अब सवाल ये हैं कि क्या ग्रामीण और अदिवासी इलाकों सहित सभी पंचायतों में ऐसी सरकारी जानकारियां समय रहते, सही तरीके से पहुंच जाती होंगी? क्या ग्रामीण लोग सरकारी ऑफिस में आवेदन प्राप्ति स्थल पर जाकर, उन्हीं अधिकारियों और सरकारी लोगों से पूछकर उनके खिलाफ ही आवेदन कर पाते होंगे?

क्या जितने आवेदन प्राप्त हुए होंगे उनको उसी रूप में ऑनलाइन अपलोड तब भी किया जाता होगा जब उनमें उन्हीं अधिकारियों से जुड़ी शिकायतें हों, जिन पर इस प्रक्रिया को सफल बनाने की ज़िम्मेदारी दी गई है?

यदि ऐसा होता है, तो फिर सरकार को आगे आकर बताना चाहिए कि ऐसी कितनी शिकायतें आई जिसमें खुद के कार्यों से जुड़ी शिकायतों को अधिकारी बाबू ने समाधान के लिए आगे भेजा और ऐसे कितने नौकरशाह-अधिकारीगणों के ऊपर कर्रवाही की गई।

लोक सुराज अभियान के आयोजन हेतु विवेक ढांड, मुख्य सचिव जी के पत्र में एक और रोचक बात थी कि आवेदन प्राप्ति स्थल पर रखी जाने वाली पेटी को शिकायत पेटी नहीं, बल्कि समाधान पेटी का नाम दिया जाए। इस पेटी को खूबसूरत और आकर्षक बनाया जाए और स्थानीय लोक कलाओं के उपयोग से रूचिपूर्वक सजाया जाए, ताकि जनता इस ‘समाधान पेटी’ से जुड़े और इस पर विश्वास प्रकट करे। बाज़ारवाद के इस दौर में ये बातें भी जायज़ सी लगती हैं और लगे भी क्यों न, क्या पता सरकार के काम से न सही पर समाधान पेटी की सरकारी भव्यता देख कर ही आम लोग सरकार पर विश्वास करें और इनसे जुड़ने लगें?

खैर इन सवालों के बावजूद भी अगर एक बार के लिए यह मान भी लिया जाए कि सरकार वाकई ज़मीनी स्थिति और क्रियान्वयन के स्तर पर अपने परफॉर्मेंस की टोह लेना चाहती है, तब भी यह प्रक्रिया महज चुनावी साल की ज़रूरत पूरा करने से ज़्यादा कुछ नहीं हैं।

अभियान का तीसरा चरण 21 दिनों का है, जिसमें अधिकारियों को सूचित करते हुए मुख्यमंत्री किसी ग्राम में पहुंच रहे हैं और लोगों से उनकी समस्या निराकरण के संबंध में जानकारी ले रहे हैं। लेकिन लोगों से उनकी समस्या सुन लेना, योजनाओं की जानकारी ले लेना और ऊपरी तौर पर समाधान कर देना ही सोशल ऑडिट नहीं होता है। नेक नियत होने के बावजूद सरकार के पास समाज को देखने की वो समग्र दृष्टि नहीं होती है, जो किसी सामाजिक कार्यकर्ता और इन तमाम ज़मीनी संगठनों के पास होती है। आदेश में शामिल निर्देशों के अलावा शायद ही इनकी मुख्य भागीदारी इस पूरे अभियान में कहीं दिखती है।

बताते चलें कि भारत में सोशल ऑडिट की शुरूआत 1990 के दशक के शुरूआती दौर में हुई थी, जब सार्वजनिक कार्यों में भ्रष्टाचार से लड़ने और योजनाओं को आम लोगों तक पहुंचाने के लिए राजस्थान के ज़मीनी संगठन, मजदूर किसान शक्ति संगठन (एमकेएसएस) ने इसकी पहल  की थी। आगे चलकर सन 2005 में सूचना का अधिकार मिल जाने से नागरिक और गैर सरकारी संगठनों को सरकारी कार्यों और योजनाओं की अधिकांश जानकारी आसानी से उपलब्ध होने लगी। इसके फलस्वरूप सोशल ऑडिट, अधिक प्रभावशाली अवधारणा के रूप में उभरी।

इसके बाद ही 2006 में आंध्र प्रदेश में राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार योजना का ऑडिट किया गया। विश्व बैंक ने इस सोशल ऑडिट के ऊपर  अध्ययन कराया, अध्ययन में पाया गया कि सामाजिक लेखा परीक्षा के बाद 99 प्रतिशत तक नरेगा के बारे में जन जागरूकता वृद्धि हुई जो पहले 30 प्रतिशत थी। जिसके बाद सरकार योजना को अंतिम आदमी तक सही ढंग से पहुंचा पाई और नरेगा का कार्यान्वयन बेहतर ढंग से हो सका। तो क्या ऐसा ही कुछ मुख्यमंत्री जी के लोक सुराज अभियान से भी होने जा रहा है?

एक महीने से भी कम समय में पूरी होने वाली औचक निरीक्षण की प्रक्रिया जो पिछले 14 सालों में कई बार हो चुकी है, इससे सरकारी प्रचार और आत्म गुणगान से इतर और क्या-क्या हासिल होगा, जिसके कारण माननीय मुख्यमंत्री जी अभियान को सोशल ऑडिट कह गए?

लेकिन हां चुनावी वर्ष में लोगों में सरकार के प्रति अलग-अलग कारणों से असंतोष हो सकता है। यदि उनकी कुछ शिकायतें सरकार तक जा पाती हैं और उनका समाधान हो जाता है तो शायद लोगों का सरकार के प्रति आक्रोश कुछ कम हो जाए और लोगों का भी कुछ तो भला होगा।  इसका राजनीतिक लाभ तो सरकार को मिलेगा ही, साथ में माहौल बनाने के हिसाब से भी यह एक बेहतर अभियान साबित होगा, लेकिन इन सब के बावजूद अभियान को सोशल ऑडिट कहना सही नहीं है।

यदि सरकार वाकई लोगों के लिए काम करना चाहती है तो उसे सबसे पहले प्रशासन के तौर-तरीकों में बदलाव करना चाहिए, ताकि आम लोगों के घर तक योजना और सेवाओं की पहुंच सुनिश्चित हो सके।

अधिकारियों का प्रमोशन और तबादला, आम नागरिकों के फीडबैक के आधार पर किया जा सकता है, ताकि वो जनता के प्रति उत्तरदायी बन सकें। आदिवासी इलाकों के लिए उनकी भाषा और तौर तरीकों से प्रशासन की व्यवस्था की जा सकती है, तब जाकर शायद सरकार अपनी योजनाओं का व्यापक सोशल ऑडिट करवा पाने की स्थिति में होगी।

लोक सुराज अभियान को शायद मेडिकल साइंस में डॉक्टरों द्वारा कही जाने वाली लाइन से बखूबी समझा जा सकता है जब डॉक्टर ऑपरेशन थियेटर से बाहर आकर कहते हैं कि “सॉरी, ऑपरेशन वॉज़ सक्सेसफुल, बट पेशेंट डायड” 

विनयशील, युवा सामाजिक कार्यकर्ता

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