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ज़रूरी है कि किताबों को सामाजिक दायरे में लाया जाए

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बहुत दिनों के बाद अपने घर गया तो मित्रों ने बताया मुज़फ्फरपुर में शॉपिंग कॉम्प्लेक्स खुल गए हैं, चलो वहां घूमते हैं। अपने शहर के दो शॉपिंग कॉम्प्लेक्स गया पर वहां तमाम महंगे उत्पाद के शोरूम, उन शोरूम में सेल या हेवी डिस्काऊंट, खाने के लिए फूड प्लाज़ा सब दिखा। नहीं दिखा तो किताबों या पत्र-पत्रिकाओं की कोई भी दुकान।

जीवन को संयमित करने वाली वस्तु किताबे ही हमारी पहुंच से दूर होती जा रही हैं या उनको दूर किया जा रहा है। जिनको किताबे पढ़ने का जुनून है वो इस अनुभव को गहराई से महसूस करेंगे कि किताबों को सामाजिकता के दायरे से बाहर ढकेला जा रहा है।

जब कि तमाम राज्यों में होने वाले पुस्तक मेलों में पाठकों की भीड़ ने हमेशा यह सिद्ध किया है कि पुस्तकों के प्रति किसी भी पीढ़ी का रुझान कम नहीं हुआ है, बस उनके पढ़ने का तरीका थोड़ा बदल गया है। ऑनलाइन स्टोर्स में उपलब्ध ई-पुस्तकें भले ही पुस्तक संग्रह का शौक पूरा नहीं करने देती है पर पढ़ने का चाव कम नहीं होने देती है।

अपनी तमाम व्यस्तता के बीच भी जिनको पढ़ने का शौक है वे आज भी समय निकाल कर अपनी पसंद की किताबें पढ़ ही लेते हैं, फिर चाहे मे महानगरों की मेट्रो हो, ट्रेन हो, प्लेन हो या हिचकोले खाते बसों का सफर हो। “किन्डल” में बेहतर तरीके से किताबें पढ़ने के विकल्प होने के बाद भी किताबों की लोकप्रियता आज भी बरकरार है। इंटरनेट और डिजिटल लाईब्रेरी जैसी चिंताओं ने भी किताबों पर कोई संकट नहीं आने दिया और ना ही भविष्य में रहेगा।

किताबें नहीं होती तो कदाचित हम मानव जीवन की प्राथमिकताओं और मानवीय अनुभवों से हमेशा वंचित ही रह जाते, हम कला, संस्कृति, लोकजीवन, सभ्यता के बारे में किताबों के अभाव में निर-क्षीर विवेकहीन ही रह जाते। भोजपत्र, ताम्रपत्रों, कपड़ों, कागज़ों से टैब्स/किन्डल तक किताबों ने अपने रूप ज़रूर बदलें लेकिन इनसब के बीच कभी पढ़ने वालों की रूचि नहीं बदली। किताबों ने हमारे जीवन को अनुशासित भी किया और मार्गदर्शन भी किया। किताबें हमारे जीवन का हमकदम बनती चली गई, लेकिन हम किताबों से हमेशा अपने मानवीय स्वार्थ और ज़रूरतों को पूरा करने वाले साधन के तरह इस्तेमाल किया। हम किताबों से आशिक के बजाए, बेवफा के तरह ही मिले।

हमने ज़रूरत पड़ने पर लोगों से मांगकर किताब पढ़ने की संस्कृति विकसित की या फोटो स्टेट कराकर अपनी आर्थिक समस्या से निजात पा लिया, पर हमने किताबों को उपहार में देने की संस्कृति बहुत विकसित नहीं की, ना ही हमने किताबों को संग्रहित करने की इच्छा को पैदा किया। जानकारी के लिए हम गूगल पर निर्भर होते चले गये परंतु गूगल भी किताबों के पन्नों को छूने, पलटने और किसी भी अंदाज़ में पढ़ने के मोह को अलग नहीं कर सका।

समय की कमी, किताबों का महंगा होना और किताबों का बाज़ार में सहज उपलब्ध ना होना, किताबों तक हमारी पहुंच का वाजिब बहाना बनकर उपलब्ध ज़रूर है। परंतु, सोचने वाली बात यह भी है कि ये बहाने हमने अपनी सुविधा के लिए गढ़े हैं सिर्फ किताबों के संदर्भ में ही महंगाई क्यों ध्यान में आती है? हमारे पास सोशल मीडिया, टीवी और दोस्तों के गप्पें मारने का समय तो है, किताबों के लिए नहीं है। हमने खुद को और समाज को बेहतर बनाने के ज़रूरी विकल्प किताबों को स्वयं और समाज के पहुंच से दूर करने के बहाने तलाश लिए हैं। इसलिए आने वाली पीढ़ी के पास भी किताबों का अर्थ पाठ्य-पुस्तकों तक ही सीमित है। स्कूल-कॉलेजों में लाइब्रेरी में किताबें हैं पर किताबों को पढ़ने के लिए कोई पीरियड नहीं है।

23 अप्रैल 1995 को पहली बार यूनेस्को ने लोगों और किताबों के बीच दूरी पाटने के लिए “विश्व पुस्तक दिवस” मनाने का निर्णय किया। डिजिटल युग में भी किताबें हमारे जीवन की ज़रूरत बनी हुई हैं। आज ज़रूरत इस बात की है कि किताबों के सामाजिक पहुंच पर फिक्र किया जाए, पाठकों तक किताब की पहुंच बेहतर समाज के लिए बहुत ज़रूरी है। क्योंकि किताबें ही आत्मविश्वास खो चुके आदमी को दुनिया से आंख मिलाने का साहस देती हैं, अकेलापन भी देती है और अकेलेपन से निकलने का रास्ता भी दिखाती है।

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