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Channel: Society – Youth Ki Awaaz
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ये इंसान बिना आपको जज किए आपकी सारी बातें सुनता है

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“एक घंटा आपको सुन लिया जाएगा और आपको सुनने के इतने पैसे” इस सार पर आधारित, तरुन ददेजा निर्देशित, कुमुद मिश्रा अभिनीत “लिसनर” ये नयी हिंदी लघु फिल्म काफी सराही जा रही है। एक आलीशान रेस्तरां में आपको खाने के अलावा “लिसनर” यानी श्रोता भी उपलब्ध हैं। यह “लिसनर” आपको सिर्फ और सिर्फ सुननेवाले हैं, प्यार भरी मुस्कान से, पूरी तरह से। ना वो आपको बोलने से रोकनेवाला है, ना कोई सलाह देनेवाला है और ना आपके बारे में अच्छी-बुरी राय बनानेवाला है।

इस सार पक खिलने वाली एक कथा, लिसनर के अलग-अलग ग्राहक, आज के समाज का आइना और अपने अन्दर देखने के लिए मजबूर करानेवाला एक आखरी झटका। एक लघु फिल्म के तहत जिज्ञासा बढ़ाने में और कम समय में गहरा विषय पहुचाने में काफी सफल रही है।

यहां यह लघु फिल्म देखि जा सकती है।

लिसनर वाला यह विकल्प कल वास्तव में दिखे तो कोई अचरज की बात नहीं। हमारे समाज में आज बोलनेवाले बहुत ज्यादा हैं पर सुननेवाले कम। जीवनशैली बहुत ज़्यादा तनावभरी है। ट्रैफिक से लेकर, घर और ऑफिस के टेंशन से राजनीति-समाज-कला संबंधी घटने वाले असंख्य घटनाओं तक, मन में बोलने वाली चीज़ों का पहाड़ बना रहता है। सोशल मीडिया के चलते, बोलने के लिए और खुद को अभिव्यक्त करने के लिए बड़ा माध्यम खुला हुआ है।

दूसरी ओर, शांति से सुननेवाले लोग कम हैं। क्योंकि हर किसी को कुछ कहना है। जो सुनता है, वो भी समझने के लिए नहीं बल्कि प्रतिक्रिया देने के लिए ही सुनता है।

ऐसा क्यों हो रहा है? इसके कारण हमारे सामाजिक और सांस्कृतिक परिधि में छुपे हुए हैं। और बैचैन होने की प्रवृति बढ़ रही है। हमारी “परिवार” की व्याख्या बदल रही है और इंसानों का एक-दूसरे से प्रत्यक्ष मिलना-जुलना कम हो रहा है। “ऐसे ही जाते-जाते आपका हालचाल पूछने के लिए दरवाज़ा खटखटाया” ऐसा पुराने समाज का दायरा संकुचित हो रहा है। हमारा समाज “समूह” से “व्यक्ति” केन्द्रित हो रहा है।

यह लघु फिल्म सवाल तो पूछती है, मगर कुछ ज़रूरी जवाब भी हम तक पहुंचाति है।

  • सब से महत्वपूर्ण जवाब है – अगर किसी ने मुझे सुना, तो मुझे हल्का महसूस होता है। यह ज़रूरत सामने लाने की ही आज ज़रूरत है।
  • सुनना आखिर सुनना होता है। फिर वह कोई छोटी घटना हो या फिर ज़िन्दगी की उलझन हो। बोलने में छुपी भावनाए सच होती है। सोशल मीडिया पर हमारी निर्भरता भी जांचने लायक है।
  • जैसे मुझे सुनने वाला इन्सान चाहिए, वैसे मैं भी किसी का सुन सकता हूं। और मुझे कैसे सुनना है, उसकी झांकी फिल्म में दिखती है। फिल्म में विनोद के लिए फरमाया भाग अलग, लेकिन “लिसनर” कैसा होना चाहिए यह कुछ हद तक तो परदे पर नज़र आता है।

तो, अगर “सुनना” आपको “देखना” हो तो इस फिल्म का विकल्प नज़र अंदाज मत कीजिएगा।

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