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खुद को देश के संविधान से बड़ा क्यों मानता है खाप पंचायत

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कहने को तो भारत को 1947 में ही आज़ादी मिल गई थी। आज़ादी के दो-तीन सालों के बाद हमारा संविधान भी लागू हो गया था। जिसमें साफ-साफ यह लिखा गया कि अब देश का प्रत्येक नागरिक बराबरी का दर्जा रखता है। मतलब साफ था कि पूर्ण समानता ही भारत की पहचान होगी।

साथ ही संविधान में धार्मिक और सामाजिक व्यवस्थाओं की भी अपनी सीमाएं और कृत्य तय किए गए। इसके साथ एक और बहुत ही अहम मुद्दे को भारतीय संविधान में जोड़ा गया, ‘भारत के लड़के-लड़कियों की एक निश्चित आयु सीमा तक उनके जीवन के अहम फैसले लेना का अधिकार उनके अभिभावकों को होगा, लेकिन 18 साल की आयु सीमा के बाद वह अपने जीवन के निर्णय स्वयं लेने के हकदार होंगे।’

यह भी कहा गया कि बालिग होने के बाद लड़के और लड़कियां अपनी शादी का फैसला खुद कर सकते हैं। इसमें कोई भी किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं कर सकता। ना ही कोई समाज, ना ही कोई पंचायत, ना ही कोई धर्म या जाति। ज़ाहिर है यह इसलिए किया गया क्योंकि प्रेम विवाह तब से होते रहे हैं जब यह दुनिया वजूद में आयी है और उससे भी बड़ा कटू सत्य यह है कि प्रेम विवाह के खिलाफ समाजिक रुग्णता सदैव से हावी रही है।

इसी रुग्णता की दीवार गिराने के लिए शायद भारत के संविधान में यह व्यवस्था बनायी गयी कि यदि कोई व्यस्क जोड़ा अपनी इच्छानुसार प्रेम विवाह करना चाहे तो फिर किसी भी प्रकार की रुकावट उनके बीच नहीं खड़ी हो सके। ना कोई जाति इसमें रुकवाट बने, ना किसी धर्म के लोग उन्हें रोके ना ही रुढ़ीवादी सोच के लोग उन्हें रोक सकें। ऐसा लगता है कि संविधान में इन अधिकारों को शामिल करने वाले लोग पक्के प्रेमी रहे होंगे। प्रेम विवाह की सभी अड़चनों को भी भली-भांति जानते होंगे तभी उन्होंने प्रेम की सभी रुकावटों को मात्र एक कानून से छांट दिया और वह है, लड़की-लड़के का बालिग हो जाना।

यह बहुत ही अफसोस की बात है कि देश की आज़ादी और लोकतंत्र को हासिल करने और संविधान के लागू होने के 70 साल बाद भी लगातार भारत में जातिवाद, धर्मवाद और रुढ़ीवाद इस कदर हावी रहा कि इन सभी ने ना कभी संविधान को ही माना है और ना ही देश के नागरिक होने के कर्तव्यों का पालन किया है। इसके उलट प्रतिदिन भारत की रुढ़ीवादी मानसिकता के लोगों ने भारत के आज़ाद अधिकारों को अपने पैरों तले रौंदने का काम किया है और लगातार आज भी कर रहे हैं। कभी धर्म के नाम पर तो कभी किसी जाति के नाम पर तो कभी अपनी असामाजिक रीतियों को सामाजिक पर्दे की आढ़ के नाम पर।

अभी कुछ महीने पहले की ही बात है, फिल्म ‘पद्मावत’ को लेकर राजस्थान की जमीं से उपजी करणी सेना नाम के एक संगठन ने पूरे देशभर को आग के हवाले कर दिया था। फिल्म के सेंसर बोर्ड द्वारा पास होने और सुप्रीम कोर्ट के कई बार स्पष्ट आदेश देने के बावजूद करणी सेना अपनी झूठी सामाजिक शान के नाम पर और अपनी राजनीति चमकाने के लिए खुलेआम भारत के संविधान का अपमान करती रही। देशभर में फिल्म ना चलने देने का ऐलान करते हुए आगजनी, मारपीट, तोड़फोड़ की गई।

अभी हाल ही में भारत के उच्चतम न्यायालय (सुप्रीम कोर्ट) को एक बार फिर व्यस्कों के विवाह पर चिंता ज़ाहिर करनी पड़ी और स्पष्ट आदेश देने की भी आवश्यकता पड़ गयी। कोर्ट ने अपने आदेश में कहा कि दो वयस्कों की शादी में खाप पंचायतें सामाजिक विवेक का ठेकेदार ना बनें और ना ही दो वयस्कों की शादी में दखल दिया जाए। सुप्रीम कोर्ट को आज़ाद भारत के 70 साल बाद भी यह कहना पड़ रहा है, तो यह भारत के लोकतंत्र का असली आईना भी दिखाता है। अगर लोकतंत्र में व्याप्त अधिकारों की हत्याएं ना की गयी होती या संविधान और कानून को रुढ़ीवादियों ताकतों के पैरों तले ना कुचला गया होता, तो आज देश के उच्चतम न्यायालय को इस विषय पर इस तरह का आदेश देने की ज़रूरत ना आन पड़ती। यह आदेश कुछ लोगों को अच्छा लग सकता है, पर इस आदेश को देने की ज़रूरत क्यों पड़ी, जब सोचेंगे तो हकीकत से रूबरू भी हो जायेंगे।

सुप्रीम कोर्ट के आदेश को खुलेआम चुनौती देते हुए बालियान खाप पंचायत चौधरी नरेश टिकैत ने यह कह दिया कि

हम सुप्रीम कोर्ट के ऐसे किसी फैसले को नहीं मानते, लड़कियां अपनी मर्ज़ी से शादी क्यों करेंगी, पैसा खर्च करके लड़कियों को योग्य हमने बनाया है, तो उनकी शादी भी हम ही अपनी मर्ज़ी से करेंगे। यदि लड़कियां मन से ही शादी करेंगी तो ऐसे में लड़कियां पैदा ही क्यों करेंगे, कोर्ट को आदेश नहीं माना जाएगा, जिससे सामाजिक व्यवस्था को खतरा हो, जिससे पारंपरिक व्यवस्था खराब हो।

ऐसे में भारत के प्रत्येक व्यक्ति और संवैधानिक संस्थाओं को देखना चाहिए कि जो आदेश वो अदालतों में बैठकर दे रहे हैं, उन्हें किस हद तक लोग मान रहे हैं या यह कुचल रहे हैं।

कोर्ट के आदेश को ना मानने का एक और बड़ा अच्छा जवाब दिया खाप के चौधरी नरेश टिकैत ने। ऐसा होगा तो हम लड़कियां पैदा ही नहीं होने देंगे, या नहीं करेंगे। तब शायद वो भूल गए कि वे क्या कह रहे हैं, वह खुद के जन्म को भूल गए होंगे कि उनकी मां भी एक महिला ही हैं। वो पैदा न होतीं तो आज खुद उनका कोई अस्तित्व नहीं होता, अगर उन्हें इस बात की समझ होती तो शायद भूलकर भी ऐसा कुछ नहीं बोलते।

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