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शेषनाथ की कविता: बदलते दौर में इंसान होना है गुनाह

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आज के दौर में हर कुछ बदल गया है।

हरा जो हरियाली और समृद्धि थी देश की

राजनीति के चंद सफेदपोशों ने इसे इस्लामी बना दिया है।

देशभक्ति, अपने देश के नागरिकों को प्रेम करना नहीं है।

इसे आज भगवा रंग और भगवा संगठन में तब्दील कर दिया गया है।

यदि आप अपने प्रेम की दहलीज़ पड़ोसी मुल्क तक ले जाते हो,

तो एक गिरोह आपको करार दे सकता है ‘देश विरोधी’।

यदि आपने कहा कि आप जंगल, पहाड़ और नदी से प्यार करते हैं

और नहीं चाहते अनियंत्रित ज़मीन का खोदा जाना,

पहाड़ काटना, नदी को गन्दा किया जाना,

आदिवासियों को उसके घर से उजाड़ दिया जाना,

तो आप पर ठप्पा लगा दिया जायेगा नक्सली होने का।

बदलते दौर में, आज धर्म का अर्थ भी अलग अर्थ रखता है।

टोपी, टीका, मंदिर, मस्ज़िद और धार्मिक किताबें ही आज धर्म हैं।

अंधश्रद्धा, कुतर्कता, आडम्बर, डर, लालच ही उसके लक्षण।

जब देखता हूं मैं हम उम्र युवाओं की तरफ,

वो विज्ञान, तर्क, नए विचार की बात नहीं करते।

वो नारे और झंडे की मात्र बात करते हैं।

वो बात करते हैं हिंदुस्तान में रहना है तो…

घर घर भगवा फहरेगा… एक ही नारा एक ही नाम…

युवाओं की नयी ऊर्जा को भक्ति में लगा दिया गया है

शायद इसलिए कि कहीं विद्रोह ना कर दें,

बेरोज़गारी और मंहगाई को देखकर।

इन्टरनेट का डाटा, भगवा सदस्यता और उग्र नारे,

पार्कों में बैठे युगल को पीटना भर उसका काम रह गया है।

बदलते दौर में आपके पास दो ही विकल्प हैं,

आप या तो उग्र भक्त हैं या देश विरोधी।

आज आपका ठप्पा होना स्वीकार है,

ज़िन्दा इन्सान होना गुनाह।

The post शेषनाथ की कविता: बदलते दौर में इंसान होना है गुनाह appeared first and originally on Youth Ki Awaaz and is a copyright of the same. Please do not republish.


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