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वो वजहें जो बिहार को बनाती हैं एक गरीब राज्य

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बिहार एक ऐसा राज्य है, जिसका नाम सुनते ही आईएएस, आईपीएस, सरकारी बाबू, मेहनती, रिक्शावाला, और ना जाने कितनी ही छवियां हमारे ज़हन में बनने लगती हैं। भारत की सबसे कठिन परीक्षा यूपीएससी को क्लियर करने वालों में बिहार के स्टूडेंट्स ही सबसे आगे रहते हैं। यह सुनकर मन को जो खुशी मिलती है यह एक बिहारी से ज़्यादा कौन समझ सकता है?

लेकिन, वही बिहारी मेहनत मज़दूरी कर, रेहड़ी रिक्शा चलाकर पेट पालने के लिए मजबूर भी हैं। मन में एक सवाल बार-बार उठता है कि किसी को बिहारी कहना भला गाली कैसे हो सकता है? दिल्ली पंजाब मुम्बई जैसे शहरों में बिहार से आये व्यक्ति को हीन नज़र से क्यों देखा जाता है? क्यों बिहार गरीब राज्य बनता जा रहा है? जो राज्य सबसे ज़्यादा आला-अफसरों को पैदा करता है, वो राज्य इतना गरीब कैसे हो सकता है? और इन सवालों का जवाब बिहार जाकर मिला।

99200 वर्ग किलोमीटर में फैले बिहार राज्य में गरीबी के जो मुख्य कारण मुझे समझ आए, वो हैं जनसंख्या का बढ़ना, साक्षरता दर का निम्न होना, सरकारी महकमों में भ्रष्ट्राचार का बोलबाला होना, प्राइवेट नौकरियों का ना होना, निम्न प्रति व्यक्ति आय का होना, और राज्य के लोगों का तीज त्यौहार साथ ही कर्म कांड में फंसा होना। ये सभी मुख्य कारक हैं जो बिहार की कमर तोड़ राज्य को गरीब से और गरीब बना रहे हैं।

बिहार राज्य के शहरी इलाकों में रहने वाले लोग थोड़े सम्पन्न ज़रूर दिखते हैं। लेकिन, अंदर से देखने पर पता चलेगा कि सरकारी तंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार और रंगदारी ने बिहार के शहरी इलाकों की भी जड़े हिलाकर रख दी हैं। इसका एक नमूना किसी भी सरकारी विभाग में जाने पर देखा जा सकता है। हर जगह जिसे जहां मौका मिलता है, वो ही ज़्यादा से ज़्यादा लूटने की कोशिश करता है।

लहेरियासराय मेन मार्केट में सड़क का हाल देखकर उसके बारे में जब जानने की कोशिश की तो पता चला कि चार साल पहले ही ये सड़क बनी है। तभी एक जानकार मिले, बात करने पर पता चला कि सड़क बनाने का ठेका लेते हैं। जिज्ञासावश मैंने पूछ ही लिया कि सड़के इतनी जल्दी क्यों खराब हो जाती हैं? तो बातों ही बातों में जो जवाब मिला वो सुनकर उस वक्त तो हम हंसने लगे, लेकिन बाद में मैं सोचने पर मजबूर था कि क्या हकीकत में सूबे के मुखिया सुशासन बाबू के नाम से अपनी छवि बनाने वाले नीतिश कुमार को इस बारे में जानकारी नहीं होगी? उस ठेकेदार का जवाब था कि किसी भी प्रोजेक्ट में पास हुए पैसे का सिर्फ 20 प्रतिशत पैसा ही उस प्रोजेक्ट में लगाया जाता है बाकि सब ऊपर बैठे बाबू से लेकर चपरासी तक के कमिशन, मीडिया मैनेज करने और ठेकेदार के अपने प्रॉफिट में जाता है। जहां सरकारी तंत्र में इस कदर भ्रष्टाचार व्याप्त हो वहां विकास कैसे संभव हो सकता है?

वहीं ग्रामीण इलाकों में जो नज़ारा देखने को मिला, उसे देखकर एक ही बात मन से निकली कि क्यों ना बने गरीब राज्य मेरा बिहार? ग्रामीण इलाकों में अधिकांश घरों में सिर्फ महिलाएं, बच्चे और घर के बुजु़र्ग ही रह गये हैं। राज्य में काम-धंधा ना होने के कारण घर के पुरुषों और 14-15 साल के ऊपर के लड़कों ने घर चलाने के लिए शहर की ओर रुख कर लिया है। घर में सिर्फ बूढ़े दादा-दादी, मां और 3-4 बच्चे देखने को मिले। परिवार में एक कमाने वाले के दम पर 5-6 लोगों का खर्चा चलता है। और उस एक कमाने वाले की भी हालत दिल्ली-पंजाब जैसे राज्यों में किसी से छुपी नहीं है। जैसे-तैसे अपना पेट काटकर जीवन यापन करता है। और घर चलाने के लिए पैसे अपने परिवार को भेजता है।

बिहार के अलग-अलग ज़िलों की अपनी संस्कृति और त्यौहार है, जो इस राज्य को अपनी अलग पहचान देते हैं। लेकिन, सामाजिक दवाबों के कारण ये संस्कृति और प्रथा कुरीति में तब्दील हो चुकी है। जो परिवार दो जून की रोटी भी सही से ना खा पाता हो उस परिवार के किसी सदस्य की मृत्यु होने पर उसके दाह संस्कार, पूजा-पाठ और भोज-भात में होने वाले खर्च को पूरा करने के चक्कर में घरवालों को अपनी ज़मीन-खेत और घर तक गिरवी रखनी पड़ती है।

अपनी सम्पत्ति को गिरवी रखकर पूजा-पाठ और भोज-भात करवाकर समाज में  तथाकथित अपनी साख बनाई जाती है। इतना ही नहीं भोज-भात में या शादी की बारात में भी काफी खाना प्लेट में छोड़कर फेंक दिया जाता है। जबकि बिहार के कई राज्यों में ऐसे परिवार हैं जहां दिन में खाना बनता है तो रात में नहीं, और रात में बनता है तो दिन में नहीं बनता। उसी राज्य में अन्न की कदर ना हो और सामाजिक साख बनाने के चक्कर में अनर्गल खर्च किया जाए उस राज्य में समृद्धि कहां से आएंगी।

राज्य के विकास में रोड़ा बनी शिक्षा व्यवस्था भी किसी से छुपी नहीं है। सरकारी स्कूलों के हालात आज भी बड़ी दयनीय है, कई स्कूलों में तो सिर्फ पेड़ के नीचे ही क्लास लग रही है। ना क्लास रूम, बैठने को डेस्क तो बहुत दूर की बात है कई जगह तो दरी तक नहीं मिलती। सरकारी स्कूली छात्रों से बात करने पर पता चलेगा कि सिर्फ सरकारी प्रलोभनों के कारण ही वे स्कूल जाते हैं। हर महीने अनाज, छात्रवृति और नौवीं कक्षा में पहुंचने वाली छात्राओं को साइकिल देने जैसे नीतियों के कारण स्कूलों में छात्र-छात्राओं की संख्या ज़रूर बढ़ी है लेकिन, कुछ अयोग्य शिक्षकों की भर्ती के कारण शिक्षा में गिरावट ही देखने को मिलती है।

वहीं कुछ सम्पन्न परिवार अपने बच्चों की शिक्षा के लिए प्राइवेट स्कूलों की ओर रुख कर लेते हैं। और कुछ बाद में दिल्ली राजस्थान जैसे राज्य में उच्च शिक्षा की तैयारी के लिए निकल जाते हैं। जहां शिक्षा व्यवस्था में भी भ्रष्टाचार इस कदर लिप्त हो कि प्रत्येक वर्ष भ्रष्टाचार के नए-नए नमूने (शिक्षा मित्र भर्ती घोटाला, टॉपर घोटाला) देखने को मिल जाए। वहां शिक्षा में गिरावट तो देखने को मिलेगी ही। जिस राज्य के लोग शिक्षित नहीं होंगे वहां संपन्नता कैसे आएगी? कैसे रोज़गार के नए अवसर पैदा करेगा? कैसे वो राज्य सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ आवाज़ उठाएगा?

राज्य में प्रतिभा की कोई कमी नहीं है। बस ज़रूरत है तो लोगों को जागरूक होने की, अपने हक की आवाज़ उठाने की। सरकारी तंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार से लड़ने की।

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