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बिना नींद के लगातार काम कर रही पुलिस अपराध कैसे रोकेगी?

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एक बार सुबह नहाने के बाद पुलिस वालों के शरीर पर टंगी वर्दी रात के दो बजे के बाद ही बदन से उतर पाती है। यही नहीं, अगले दिन फिर समय से उन्हें कार्यालय में समय से उपस्थित होना होता है। ऐसी दबाव भरी दिनचर्या एक दिन का मामला नहीं है। पुलिस वालों का जीवन तकरीबन ऐसे ही हर दिन चलता है। सप्ताह में चौबीस घंटे का सामान्य ‘रूटीन’ यही होता है।

अब जबकि पुलिस के कार्यक्षेत्र लगातार व्यापक होते जा रहे हैं, उनके ऊपर काम का बोझ भी लगातार बढ़ा है। इस काम के बोझ के दौरान उनके दुख-दर्द से किसी को कोई मतलब नहीं होता। काम के दबाव में भले ही पुलिस वाले मानसिक स्तर पर टूट जाएं, लेकिन पुलिस विभाग को उनसे कोई हमदर्दी नहीं होती है।

पुलिस अधिकारियों के स्तर पर एक सामान्य समझ विकसित कर ली गयी है कि विभाग में सब कुछ ‘ठीक’ है और उसे किसी तरह के सुधार की ज़रूरत नहीं है। पुलिस के अफसर जवानों की बेहतरी पर बात करना अपनी ‘तौहीन’ समझते हैं। उनका वर्ग चरित्र शासक वर्ग का होता है, जो जवानों को महज़ एक ‘गुलाम’ भर समझता है।

दरअसल, उत्तर प्रदेश में कानून-व्यवस्था का सवाल पिछले कई सालों से विधानसभा चुनाव में राजनीतिक बहस का मुद्दा बनता रहा है। लेकिन, इस बात पर राजनीति में कभी कोई बहस नहीं होती कि आखिर कानून का शासन स्थापित करने में लगे लोगों- खासकर ‘पुलिस’ के सिपाहियों-दारोगाओं की मानवीय गरिमा को सुनिश्चित कैसे रखा जाए? कानून व्यवस्था के खात्मे का रोना सभी दल भले ही रोते हों, लेकिन कानून व्यवस्था की ज़िम्मेदारी उठाने वाले पुलिस के इन सबसे निचले स्तर के जवानों के दुख दर्द उनकी बहस का हिस्सा नहीं होते हैं।

साल दर साल जिस तरह से पुलिस की ज़िम्मेदारियां और कार्यक्षेत्र बढ़ रहा है, ठीक उसी अनुपात में संख्या बल लगातार घटता जा रहा है। कार्य बल में लगातार हो रही कमी पुलिस की कार्यक्षमता पर बहुत ही नकारात्मक असर डाल रही है। इससे एक तरफ अपराध नियंत्रण में मुश्किल तो होती ही है, पुलिस के कर्मचारियों पर काम का दबाव भी काफी बढ़ जाता है।

काम के इसी दबाव के कारण पुलिस वाले आज अपनी मानवीय गरिमा को ‘भूल’ चुके हैं और शारीरिक तथा दिमागी रूप से बीमार होते हुए लगातार ‘हिंसक’ हो रहे हैं। बिना अवकाश के लगातार ‘ड्यूटी’ करने वाले पुलिस वालों को मैंने बहुत नज़दीक से देखा है। वे सब गंभीर रूप से ‘अवसाद’ का शिकार हो रहे हैं।

बात सिर्फ यहीं तक सीमित नहीं है। पुलिस महकमे में सब इंस्पेक्टर का पद बहुत ही ज़िम्मेदारी भरा होता है। इस समय जो हालात हैं उसमें एक सब इंस्पेक्टर के पास औसत दस से ग्यारह मुकदमों की विवेचना लंबित है। यह सब पुलिस वालों में अपने कर्तव्य पालन को लेकर एक गंभीर ‘तनाव’ पैदा करता है। डिप्रेशन और अथाह काम के इस बोझ ने पुलिसकर्मियों को ‘बीमार’ बना दिया है। बस वे बोझ ढोने वाले ‘गधों’ में तब्दील हो गए हैं।

बहरहाल, भाजपा ने अपने चुनावी घोषणापत्र में पुलिस बल की संख्या बढ़ाते हुए पुलिस में रिक्तियों को भरने का वादा भले ही किया हो लेकिन इससे पुलिस के जवानों को कुछ खास राहत नहीं मिलेगी। वर्तमान समय में कार्यस्थल पर जिस यंत्रणापूर्ण हालात से पुलिस कर्मियों का सामना हो रहा है, उससे तत्काल निपटने की कोई ठोस रणनीति योगी सरकार के पास नहीं है।

थकी हारी बीमार पुलिस एक स्वच्छ और न्यायपूर्ण प्रशासन नहीं दे सकती। इसके लिए योगी सरकार को चाहिए कि वह पुलिस वालों की इंसानी गरिमा को सुनिश्चित करने की दिशा में पहल करे। इसके लिए सबसे पहले सप्ताह में एक दिन आवश्यक रूप से अवकाश देने की व्यवस्था को तत्काल लागू किया जाए। यह अवकाश सभी पुलिस कर्मियों के लिए अनिवार्य हो और इसे वे अपने परिवार और बच्चों के साथ अवश्य बिताएं। इससे इतर, उनके लिए काम के घंटे फिक्स किए जांए ताकि उनका व्यक्तिगत जीनव भी पटरी पर लौटे। यह सब पुलिस कर्मियों में काम के बोझ को हल्का करेगा और उनके काम को आनन्ददायक बनाएगा।

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