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क्या क्षेत्रीय, धार्मिक या जातीय पहचान, इंसान होने से ज्यादा जरुरी है

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विकास कुमार:

हे! मानव तू क्यों इतनी अस्मिताओं से जकड़ा हुआ है। जद्दोजहद कर रहा है, केवल अपनी पहचान के लिए? इसके जवाब में केवल इतना कहा जा सकता है कि वह मान्यता ही है, जो उसे बार-बार अपनी अस्मिता या पहचान का आभास कराती है, और इसी मान्यता हेतु वह अस्मिता की राजनीति में कूद पड़ता है। संयोग देखिये वह समाज में जो अपने रूप में बहुसांस्कृतिक है, उसका ही एक अंग है। इस बीच सुविधा के लिए यह बताना उचित रहेगा कि यहाँ जिस अस्मिता की बात की गई है उसका अर्थ व्यक्ति तथा समुदाय आधारित पहचान से ही है, और इसी के लिए वह अपनी पहचान के संकट से जूझ रहा है तथा जो बाद में यहीं से राजनीति की शक्ल अख्तियार कर लेती है और यही अस्मिता की राजनीति अथार्त पहचान की राजनीति बन जाती है।

व्यवहारिक स्तर पर आज का समाज मार्क्सवाद, उदारवाद, नव-आधुनिकतावाद, नव-उदारवाद (बाजारवाद) तथा समुदायवाद के रूप में विभिन्न विचारधाराएं लिए हुए है। लेकिन आज विभिन्न अस्मिताएं इन्हीं विचारधाराओं में फल-फूल रही हैं। नारी अस्मिता की बात करें तो वह पुरुष अस्मिता से संघर्ष के रूप में दिखाई देती है, दलित अस्मिता ब्राह्मणवाद से संघर्ष की स्थिति में दिखाई देती है। धार्मिक-मुस्लिम अस्मिताएं अपनी पारम्परिक सांस्कृतिक मान्यताओं हेतू हिन्दूओ से संघर्ष की स्तिथि अपितु हिन्दू तथा अन्य धर्मो के रूप में भी पहचान आधारित संघर्षशील स्तिथि के रूप में दिखाई देती है। तो सवाल यह है कि हम किस प्रकार के विश्व बनावट में लगे हुए हैं। अस्मिता आधारित सोच से ग्रस्त वह समाज, जिसका केवल एक ही उद्देश्य है- मान्यता के प्राप्ति?

एक समय था जब अरस्तु ने महिलाओं तथा गुलामों को शासन-कार्य में भागीदारी योग्य नही माना था। लेकिन १९वीं शताब्दी आते-आते यूरोप तथा अमेरिका जैसे पश्चिमी समाजों ने ही महिलाओं को नागरिक अधिकारों के साथ-साथ कुछ कानूनी अधिकार भी दिये, जिसके बलबूते विभिन्न विकासशील समाजों में भी महिला अधिकारों के लिए कानून बनने लगे। यही वह आधार था, जिस पर महिलाओं ने अपनी पहचान के बरक्स मान्यता की राजनीति को इस रूप में स्थापित किया कि वह भी इस आधुनिक समाज के निर्माण में अपनी भूमिका निर्धारित कर सकती हैं। लेकिन यह बात हमें जरुर याद रखनी होगी कि एक बार ह्नंटिंगटन ने अपनी पुस्तक ‘सभ्यताओं के बीच टकराव’ में कहा था- कि एक दिन ऐसा आएगा, जब समाजों में विभिन्न संस्कृतियों लिए सभ्यताओं के बीच टकराव होगा, अर्थात विभिन्न सभ्यताओं के बीच ग्रहयुद्ध की स्तिथि। जो आज हम दलित-हिन्दू (ब्राह्मण वर्ग), शिया-सुन्नी-बलूच, तमिल-सिंहिली, इस्राइल-फिलिस्तीनी तथा हिन्दू-मुस्लिम संघर्ष के रूप में देखते भी हैं। अत: यहां कहा जा सकता है कि इसके मूल में वही मान्यता की राजनीति है, जो वह अपनी-अपनी सांस्कृतिक पहचान की स्थापना के रूप में स्थापित करना चाहती है। बाद में यह लड़ाई प्रतिनिधित्व, राजनीतिक सहभागिता तथा चुनावी राजनीति तक पहुँच जाती है।

भारत में आज एक विवाद चला हुआ है। जो भारत में एक समान नागरिक आचार सहिंता की स्थापना को लेकर है। इसके मूल में विभिन्न धर्मों के बीच जो अलग-अलग कानून संहिताए है, उनके कारण भारत के संविधान का कोई मूल्य ही नही रह जाता तथा न्याय नही मिल पाता। इसमें भी पहचान का संकट अधिक दिखता है। आज चाहे कोई भी धर्म हो वह अपनी सांस्कृतिक विरासत से हमेशा ही जुड़े रहना अधिक पसंद करता है। इस रूप में हम मुस्लिम समाज को देख सकते हैं, जो नही चाहता कि उसके सामने कोई ऐसी स्थिति उत्पन्न हो कि उसे अपनी कुरान आधारित सांस्कृतिक मान्यताओ में किसी प्रकार का कोई समझौता करना पड़े। इसी तरह हिन्दुओ में भी अपनी सांस्कृतिक विरासत के रूप में वैदिक कर्मकांड, उपनिषद आदि पर आधारित पहचान का ख़ास ध्यान रखा जाता है। ठीक इसी तरह ईसाई व सिख और अन्य धर्मों के बीच भी यही पहचान रूपी राजनीति झलकनी शुरू हो जाती है।

अब समाज के उस हिस्से की बात करते हैं जो मुख्यधारा से उपेक्षित है, वह है “दिव्यांग” या साधारण भाषा में कहे तो विकलांग। वह भी सरकार तथा समाज के सामने अपनी सामाजिक तथा मानवीय पहचान को सामने रखते हुए मान्यता चाहता है। ताकि उसे भी ऐसे कानूनी अधिकार मिले, जो अन्य सामाजिक वर्गों को मिले हैं और साथ ही उस तिरस्कृत कर देने वाले मानवीय बहिष्कार से छुटकारा मिले, जो केवल वह भोगता है। विभिन्न समाजों में विभिन्न संस्कृतियों के बीच अपनी पहचान का निर्माण भी अलग-अलग होता है। उदहारण तो हमारे समक्ष बहुत हैं, जो इस पहचान के संकट को स्वीकारते हैं। दार्शनिक पहलु पर गौर करें तो एक व्यक्ति यह हमेशा चाहता है कि वह जिस समाज से संबध रखता है, वह उस समाज की राजनीति में अपनी पहचान की मान्यता को स्थापित करे। और जब उस मानव अथार्त व्यक्ति को समाज पहचानने से इन्कार कर देता है तो फलस्वरूप वह अपने सांस्कृतिक वर्चस्व को स्थापित करने में जुट जाता है और यह विचार- समरसता, अधिकारों, समानता तथा दूसरी संस्कृतियो के लिए हानिकारक सिद्ध होने लगता है। अत: इस रूप में अस्मिता या कहें पहचान का संकट, मान्यता की राजनीति की तरफ स्थानांतरित हो जाता है।

ऐसा नहीं है कि यह विचार अभी-अभी जन्मा है। यह सदियों से ही व्याप्त है लेकिन ऐतिहासिक तथा आधुनिक काल में इसकी मौजूदगी अपने अलग-अलग स्वरूप में रही है। जिसे हम आज के समय में भी देख सकते हैं तथा उस पर विचार कर सकते हैं। भारत के सन्दर्भ में, जब भारत ब्रिटिशों का उपनिवेश बना तो उस समय अंग्रेजों ने जिस प्रकार की मनोवैज्ञानिक तथा पाश्चात्य सांस्कृतिक शक्ति का प्रयोग किया है, वह अपने आप में पश्चिमी संस्कृति को इस महाद्वीप में स्थापित करने की एक सुनियोजित परम्परा ही थी। और इसी शक्ति का प्रयोग करते हुए अंग्रेजों ने सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक तथा सांस्कृतिक परिवर्तनों को भारतीय परम्परा में ऐसे ढाला कि वह भारतीय राजनीतिक सांस्थानिकरण का हिस्सा बन कर रह गई।

भारत एक बहु-सांस्कृतिक मुल्क रहा है, यहाँ राम को भी पूजते है, रहीम को भी, नानक को भी, जीजस को भी तथा बुध्द को भी! लेकिन बावजूद इसके कि भारत अपने मौजूदा दौर में धर्म-निरपेक्ष देश है, सांस्कृतिक रूप में यहाँ हिन्दू बहुसंख्यको का अल्पसंख्यकों पर सांस्कृतिक प्रभुत्व दिखता है और वह इस रूप में ही समाज के साथ रहते हैं। लेकिन इसके पीछे प्रत्येक समुदाय अपनी-अपनी अस्मिता की राजनीति को स्थापित करने में लगे हुए हैं। कहा बस यही जा सकता है कि अस्मिता या कहें पहचान, आज समाज तथा राजनीति के निर्माण में एक अनमोल सी वस्तु बन कर रह गयी है, जो यह प्रमाणित करती है कि प्रत्येक समाज ऐसा क्या करे जिससे उस धरती पर उसका सांस्कृतिक वर्चस्व निर्धारित हों सके। इसी से फलीभूत होकर अपने लिए सामाजिक, राजनीतिक तथा आर्थिक उद्देश्यों को स्थापित करें जो वह अपने साथ अपने देश के विकास के लिए स्थापित कर सके।

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